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व्यक्ति की सगति से गर्जता है, निर्धन व्यक्ति भी धनवान की सगति से गर्व से, अपना मस्तक ऊँचा कर सकता है और अवगुणी व्यक्ति भी गुणवान पुरुप की सगति से गौरव का अनुभव करता है । उस प्रकार से हे प्रभो ! कर्म-कलक से युक्त मैं आपके समान निष्कलक के सानिध्य से गौरव का अनुभव करता हूँ, स्वय को भाग्यशाली मानता हूँ, अपना जीवन सार्थक मानता हूँ।
आप मेरे नाथ हैं, मै आपका दास हूँ। आप मेरे स्वामी हैं, मैं आपका सेवक हूँ। इस भव-अटवी मे भटकते हुए कल्पवृक्ष की तरह मुझे आपका अमोध दर्शन प्राप्त हुआ है।
अत अब इस अस्थिर, असार ससार मे सारभूत यदि कोई है तो वह केवल आपकी सेवा ही है, ऐसा मुझे ज्ञात होता है।
हे नाथ ! आपको शत्रु के प्रति तनिक भी रोष नही है, चाहे वह चडकौशिक के रूप मे आये अथवा कमठ के रूप मे आये, तथा आपको मित्र के प्रति राग नही है चाहे वह देव हो अथवा देवेन्द्र हो। आपकी समान दृष्टि को मैं जितने नमस्कार करूं उतने कम है । स्वयभू-रमण समुद्र के उदधि को लज्जित करने वाली प्रापकी असीम करुणा को कोटिशः प्रणाम करके भी मेरा मन तृप्त नही होता ।
हे विश्व-वत्सल परमात्मा ! आपके चित्त मे स्थान प्राप्त करने की मैं याचना नहीं करता.......... परन्तु प्रभो ! मैं तो केवल यही याचना करता हूँ कि आप मेरे चित्त मे आकर निवास करें........ फिर मुझे कर्म-शत्रुनो का तनिक भी भय नही है ।
सर्वस्व समर्पण-भावना
हे परम उपकारी नाथ ! मेरा तन, मन, धन जीवन और प्राण समस्त पापको समर्पित हैं । इन सब पर आपका स्वामित्व है । आपकी प्राज्ञा का प्रभुत्व उन पर स्थापित हो और महा मोह का बल मद हो यही मेरी अभिलापा है । मेरा सर्वस्व प्रापको समर्पित है, उसे स्वीकार करके प्रमो।
मिले मन भीतर भगवान
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