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भक्ति-योग मे प्रविष्ट होने के पश्चात् ही आगे की भूमिका पर पहुँचा जा सकता है।
प्रीति-भक्ति विषयक प्रश्नोत्तर
प्रीति एव भक्ति मे अन्तर क्या है ?
उपलक दृष्टि से देखने पर तो प्रीति एव भक्ति प्रेम के ही स्वरूप. प्रतीत होते है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उनका अन्तर स्पष्ट ज्ञात होता है।
प्रीति मे स्नेह-भावना, याचना आदि की प्रधानता होती है, जबकि भक्ति मे पूज्य-भाव, श्रद्धा आदि की प्रधानता होती है ।
प्रीति एव भक्ति के मध्यस्थ अन्तर को समझने के लिये पत्नी एव माता का उदाहरण दिया जाता है ।
दोनो प्रेम-पात्र हैं, तो भी दोनो के प्रेम मे अन्तर है । पत्नी के प्रति स्नेह होता है, जबकि माता के प्रति पूज्य-भाव होता है, श्रद्धा एव कृतज्ञता होती है । प्रत स्नेह-भाव की अपेक्षा पूज्य-भाव का स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
प्रीति-योग की अपेक्षा भक्ति-योग मे मन की निर्मलता, स्थिरता अधिक होती है, चित्त की प्रसन्नता अधिक होती है, विषयो के प्रति विरक्ति, कपायो की मन्दता और गुणानुराग तीव्र होता है ।
प्रीति-योग मे परमात्म-दर्शन के लिये तरसता साधक कभी-कभी निराश हो जाता है, परन्तु भक्ति-योग में प्रविष्ट साधक कदापि निराश नही होता, क्वोकि उसकी श्रद्धा दृढतर बनती है । हजारो अन्तराय आने पर भी श्रद्धा के उस गढ की एक ककरी भी नहीं गिरती, परन्तु वह उत्तगेत्तर दृढतर बनती जाती है।
मिले मन भीतर भगवान
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