Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 215
________________ अर्थात् आप लोकाग्र में विराजमान हैं जबकि मैं मध्य-लोकवर्ती मनुष्य लोक हे नाथ ! अनेक वार मेरी ऐसी इच्छा हो जाती है कि मैं आपको पत्र लिख कर अपनी प्रीति सुदृढ कर, भक्ति को वेगवती बनाऊं, परन्तु खेद है ! मेरा पत्र आप तक पहुँचाने वाला और वहाँ से आपका शुभ सन्देशमय प्रत्युत्तर लेकर लोट पाने वाला कोई सन्देश-वाहक-पथिक मुझे मिलता नही । जो व्यक्ति आपके पास पहुंचता है वह मानो एक समय का भी विरह नहीं चाहता हो-नही सह सकता हो, उस तरह अापकी ज्योति मे मिल कर पापमय बन जाता है और ऐसा कोई वाहन भी नही है कि जिस पर सवार होकर मैं आपको मिलने के लिये आ सकू तथा उन नील-गगन मे उड़ने वाले पक्षियो के समान पख भी मेरे पास नही हैं कि उड कर सुदूर स्थित आपके मगलकारी दर्शन प्राप्त करने के लिये मै आ सकू। जिस प्रकार मेरे तन मे (पख) पाँखे नही है उस प्रकार मेरे मन मे आँखें भी नहीं हैं कि जिनके द्वारा मै आपके दर्शन कर सकूँ और हे सामर्थ्य-निधान ! मुझ मे ऐसी कोई विशिष्ट शक्ति भी नही है कि जिसकी सहायता से मैं आपके समीप पहुँच जाऊँ। भक्त की व्यथा प्रभु-मिलन-तृपित भक्त की व्यथा भी विचित्र प्रकार की होती है । चह परमात्मा को मानो कहता है कि आपके दर्शन की तमन्ना-लगन ज्यो-ज्यो तीव्र होती जाती है, अापके मिलन की प्यास ज्यो-ज्यो उत्कट होती जाती है, त्यो त्यो हे नाथ ! अनेक अन्तराय मुझे चारो ओर से घेर लेते हैं जो मेरी प्राशा के मधुर स्वप्न को धराशायी कर डालते हैं। सचमुच, प्रभो ! आज मुझे उस सत्य का भान होता है कि जो दूर-सुदूर शाश्वत धाम मे निवास करते हो, जिन्हे मिलना अत्यन्त दूभर हो और जिन्हे कोई सन्देश भी नहीं भेजा जा सकता हो, ऐसे व्यक्ति से प्रेम करना दुखदायी है । अतः कायर मनुष्य प्रापको प्राप्त करने के मार्य मे पीछे हट जाते हैं । हे निरजन, निराकार परमात्मा । आप तो बहुत दूर हैं, परन्तु साकार श्री अरिहन्त परमात्मा तो इस धरती तल पर विचर रहे हैं और अपने मिले मन भीतर भगवान

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