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प्रीति-योग .
प्रभु प्रेम का प्रभाव
श्री जिनेश्वर देव के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपा के स्वरूप द्वारा जिस प्रकार उनके विशद स्वरूप एव विश्वोपकारिता की हमे प्रतीति हुई, उसी प्रकार से उनके प्रति जो निष्काम प्रीति, भक्ति भक्त-हृदय मे उत्पन्न होती है, उसे जैन दर्शन के शास्त्रो एव शास्त्रवेत्तानो ने किस प्रकार चित्रित किया है, किस प्रकार उसका विकास किया है, उस सम्बन्ध मे सूरि पुरन्दर श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज द्वारा प्रदर्शित प्रीतियोग, भक्ति-योग, वचन-योग और असग-योग के आधार पर विचार करके जैन दर्शन के भक्ति योग की व्यापकता एव विशदता का तनिक विशेष परिचय प्राप्त करें और तदनुसार जीवन मे उक्त भक्ति योग को जीवित करके हमारे अन्तर मे स्थित अनन्त आनन्द एव ज्ञान के कोष को प्राप्त करने के लिये सुभागी बनें ।
__ सामान्यत परमात्म-दर्शन के लिये तरसते साधक के हृदय मे परमात्मदर्शन की प्राप्ति के मौलिक उपाय ज्ञात करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और उन उपायो के अनुसार वह साधना की दिशा मे प्रयाण करता है।
इस प्रक्रिया को चार विभागो मे विभाजित किया जा सकता है ।
(१) प्रीति-अनुष्ठान (प्रीति-योग), (२) भक्ति-अनुष्ठान (भक्ति योग), (३) वचन-अनुष्ठान (शास्त्र योग), और (४) असग अनुष्ठान (सामर्थ्य योग)
प्रीति-योग अर्थात् प्रेम विश्व का महानतम आकर्षण प्रेम है । मानव प्रेम करता ही रहा है, फिर चाहे उसके प्रेम-पात्र कोई व्यक्ति हो अथवा कोई भौतिक पदार्थ हो, परन्तु कोई होता अवश्य है।
मिले मन भीतर भगवान