________________
"हे परमात्मा ! पाप राग रहित हैं और मैं तो राग से ओत-प्रोत हूँ।
आप दोषरहित हैं और मैं तो द्वेष के दावानल मे झुलस रहा हूँ।
.
"
आप मोह रहित हैं और मैं तो मोह के महा पाश मे जकडा हुआ हूँ।
आप अाशा रहित हैं और मैं आशा के मधुर स्वप्नो मे हिचकोले खा रहा हूँ।
आप इच्छा रहित हैं और मैं तो हजारो इच्छानो से घिरा हुआ हूँ।
श्राप नि सग हैं और मैं तो सग मे ही जीवन के रगो का आनन्द लेने वाला हूँ।
आप पूर्ण ज्ञानी हैं और मैं तो अज्ञान मे ही भटकने वाला हूँ ।
आप प्रशम रस के पयोधि हैं और मैं तो क्रोध-कषाय का उदधि (सागर) हूँ।
आप निविषयी हैं और मैं तो विषयासक्त, विषय-अस्त हूँ।
आप कर्म-कलक से विमुक्त हैं और मैं कर्म-कलक युक्त हूँ।
आप अविनाशी-प्रात्म-सुख के स्वामी हैं और मैं तो नश्वर पौद्गलिक सुख का कामी हूँ।
आप शुद्ध, बुद्ध, पूर्ण हैं और मैं तो अशुद्ध, अबुद्ध, अपूर्ण हूँ ।
आप अयोगी, अशरीरी, अलेशी हैं और मैं तो सयोगी, सशरीरी, और सलेशी हूँ।
आप निर्मम, निर्भय, निस्तरग है और मैं तो ममत्व, भय एव तरग से युक्त हूँ।
४०
मिले मन भीतर भगवान