________________
परमात्म-प्रीति-पूर्वक जीवन मे एकरूप बने हुए महा सत तो सर्वदा एक ही धुन मे लीन रहते हैं कि- 'अवर न धधो आदरूँ, निश-दिन तोरा गुण गाऊँ रे .. '
परमात्मा ही अपनी मति बनते है, गति बनते हैं, फिर विचार, वाणी एव व्यवहार मे परमात्मा की प्रीति छलकती है।
ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे ।
पद गाने वाले पानदधन का श्रेष्ठ अभिवादन-सम्मान परमात्मा की प्रीति मे पूर्णत एकरूप होने मे है ।
परम चैतन्यमय परमात्मा की प्रीति के परम प्रभाव से प्रत्येक प्राण मे अपूर्व पवित्रता प्रकट होती है। पाँचो इन्द्रियाँ प्रात्मा की ओर उन्मुख होती हैं। हृदय मे शब्दातीत स्नेह, दया प्रकट होती है। सातो धातुओ मे नवीन शुचिता का सचरण होता है । प्रत्येक कोष मे अपूर्व धर्म-धारणा की क्षमता प्रकट होती है अर्थात् प्रेमी की समग्रता परम कल्याणकारी परमात्मप्रीति के द्वारा रग जाती है। उठते, वैठते, चलते, खाते, पीते अथवा कुछ भी कार्य करते उसका उपयोग (ध्यान) परमात्मा मे रहता है ।
परमात्मा की प्रीति का अमृत-पान करने वाले व्यक्ति को विषय एव कषाय विष तुल्य लगते हैं अर्थात् विपय-कष य का तनिक भी सम्मान करने मे उसे परमात्मा का भयानक अपमान प्रतीत होता है।
परमात्मा की प्रीति का आस्वादन ही इस प्रकार का है कि एक बार उसका अनुभव करने वाले धन्यात्मा को स्वार्थ तुच्छ प्रतीत होता है। उसका सम्पूर्ण जीवन परमात्ममय बन जाता है। उसका हृदय ससार की किसी भी वस्तु मे नही चिपकता, वह तो केवल परमात्म-चरण मे ही लीन रहता है ।
भक्त की भाव-सिक्त प्रार्थना
इस प्रकार का परमात्म-प्रेमी अनन्त गुण-निधान परमात्मा के गुणो को अत्यन्त उमग से स्मरण कर करके, स्व-दुर्गुणो की निन्दा करके परमात्मा के समक्ष दीनतापूर्वक याचना करता है कि
मिले मन भीतर भगवान