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के लिये मिलता है, तो कही भाई-भगिनी का पवित्र प्रेम भी दृष्टिगोचर होता है । कही व्यक्ति का किसी पदार्थ के प्रति सकुचित प्रेम देखने को मिलता है तो कही व्यक्ति का विश्व के प्रति विकसित प्रेम देखने का अवसर मिलता है और कही विश्व वात्सल्यमय परमात्मा के प्रति प्रकृष्ट प्रेम प्रवाहित करते सत महन्तो के भी दर्शन होते हैं।
इस प्रेम का साम्राज्य विश्व पर विविध रूप मे फैला हुआ है। फिर । भी भौतिक सुखो की कामना से किया गया प्रेम अन्त मे तो छलिया ही सिद्ध होता है । उसका अन्तिम परिणाम प्राह एव आँसू ही होते हैं ।
पचेन्द्रिय-विषयक प्रेम भी अन्त मे प्राण-घातक सिद्ध होता है ।
तात्पर्य यह है कि प्रेम का पात्र-पदार्थ एक मात्र आत्मा है, उसके गुण है । उन गुणो को धारण करने वाले महा सत हैं और वे महा सत भी जिन्हें नित्य भाव सहित स्मरण करते है वे श्री अरिहन्त परमात्मा हैं, जिनका शासन सर्व-व्यापी है, अप्रतिहत है । जिनकी कृपा का स्रोत समस्त सृष्टि पर अवाधगति से सतत प्रवाहित होता ही रहता है, जिनका विमल वात्सल्य समस्त प्राणियो के लिये सुखदायक सिद्ध होता है।
जिनके दर्शन मात्र से तन का ताप, मन का सन्ताप और हृदय की । तडप शान्त हो जाती है।
जिनका सान्निध्य हमे अशुभ भावो से निवृत्त करके शुभ भावो मे । प्रवृत्त करता है।
जिनकी प्रशान्त मुद्रा राग की ज्वाला बुझा कर त्याग के राग को पुष्ट करती है और पाप-पुञ्जो का विलय करके पुण्य-पुजो का सचय करती है।
जिनके दर्शन से भव-निर्वेद एव प्रथि-भेद भी सुलभ हो जाते है । भव-शृखला से मुक्ति और निज-शुद्ध आत्म-स्वभाव की प्राप्ति में भी अनन्य कारणभूत हैं।
मिले मन भीतर भगवान
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