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परन्तु जिस प्रकार दिन भर सूर्य का प्रकाश प्रसारित होने पर भी प्रज्ञाचक्षु (अन्धा) व्यक्ति अथवा तहखाने मे बैठे व्यक्ति को प्रयवा दिन मे देख सकने में असमर्थ उलूक आदि पक्षियो को उस ज्योति का लाभ नहीं मिलता, उसी प्रकार से अभव्य, दुर्भव्य अथवा मिथ्यामति वासित प्राणी को भी परमात्मा के परम पवित्र प्रकाश की प्रतीति नही होती, जिससे उसकी आत्मा पवित्र हो नही पाती, वह कोई परमात्मा के सामर्थ्य का दोष नही है, परन्तु उस प्राणी की पात्रता का ही दोष है ।
__ अत. मुमुक्षु, सुज्ञ साधक को अपने मन-मन्दिर को पावन करने के लिये हिंसा, विषय-कषाय आदि दोषो का त्याग करके अहिंसा, सयम, तप अ.दि अनुष्ठानो के द्वारा एव परमात्मा का नाम-स्मरण, जाप, गुण-कीर्तन, ध्य न आदि सुकृत के निरन्तर सेवन से निज अन्तःस्तल को पवित्रतम बनाना चाहिये।
यदि बर्तन का पैदा स्वच्छ नही होगा तो उसमें जो उत्तम प्रवाही पदार्थ भरा जायेगा वह भी अशुद्ध हो जायेगा, अत पहले बर्तन स्वच्छ करना चाहिये और तत्पश्चात् उसमे घी, दूध आदि पदार्थ डालने चाहिये ।
इसी प्रकार से अन्त करण कषायो की कालिमा से युक्त होता है तब तक वहाँ परमात्मा का पावन प्रकाश अपावन को पावन करने के अपने स्वभाव मे यथार्थ रूप से सफल नही हो सकता।
नियम है कि जिस पदार्थ की सतह शुद्ध, स्निग्ध एव समतल होती है वह पदार्थ प्रकाश की किरणो को अधिकाधिक आकृष्ट कर सकता है एव उनका सचय कर सकता है । यह नियम अन्त करण की शुद्धि, दयार्द्रता एव समता-वृत्ति पर भी प्रभावी होता है ।
इस प्रकार के अन्त करण मे अन्तरतम प्रात्मा का परमात्म-प्रकाश निश्चित रूप से फैलकर स्व सत्ता को स्थापित करता है, जिससे परमात्म-दर्शन एव मिलन की उत्कट अभिलाषा परिपूर्ण होती है।
मिले मन भीतर भगवान