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(५) जिनके द्वारा धर्म आदि पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली समस्त प्रकार की विद्याओ का प्रारम्भ हुअा है, उन परमात्मा को पाकर मैं कृतार्थ हुआ हूँ, क्योकि कृतार्थता की अनुभूति तव ही होती है कि जब आत्मा को अपनी अन्तिम कामना पूर्ण होती ज्ञात होती है ।
वस, इसी प्रकार से सम्पूर्ण विद्या के प्रभव स्थान स्वरूप परमात्मा को पाकर वह कृतार्थता का अनुभव करता है, अर्थान् उसके समस्त कार्य पूर्ण होते है । सम्पूर्ण शुद्ध आत्म-स्वभाव प्राप्त करने के रूप मे उसकी मनोकामना पूर्ण होती है।
जिस मनुष्य को परमात्मा की पूर्ण कृपा से शुद्ध निजात्म-स्वरूप को प्राप्त करने की प्राध्यात्मिक विद्या प्राप्त हो जाती है, वह साधक पूर्णता की पग-डडी का पथिक बनता है । तत्पश्चात् उसे शुद्ध प्रात्म-स्वरूप को पूर्णतया प्रकट करने के साध्य की सिद्धि अत्यन्त समीपवर्ती प्रतीत होती है, जिससे मानो उसे साध्य की सिद्धि प्राप्त हो गई हो, उस प्रकार से वह स्वय को कृतार्थ मानता है, महान् भाग्यशाली समझता है।
दीर्घकालीन प्रवास के अन्त मे जब मनुष्य अपने गांव की सीमा मे । प्रविष्ट होता है उस समय उसके नेत्रो एव अन्त करण मे जो कृतार्थता छाती है, उससे भी अधिक कृतार्थता का एक साधक को अपना साध्य निकटतर प्रतीत होने पर अनुभव होता है ।
(६) जिनका ज्ञान त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने । वाला है, ऐसे परमात्मा का मैं दास हूँ।
दासता अधिक सम्पत्तिशाली-समृद्धिशाली व्यक्ति की की जाती है । परमात्मा अनन्त केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी के स्वामी है, अत उनकी दासता म्वीकार करने से उनका कृपा-पात्र बना जा सकता है, जो (कृपा) दास को दरिद्रता नष्ट करके अनन्त केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को समर्पित करता है।
स्वय की अल्पता का भान एव दु,ख, किसी अन्य की सहायता के विना उसे दूर करने की अपनी असमर्थता का ज्ञान कराता है और वह अल्पता
मिले मन भीतर भगवान