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धर्म देशना के अतिरिक्त के समय मे समीपस्थ प्राणियो का एव दूर देशो मे स्थित भव्य जीवो का परमात्मा के नाम आदि निक्षेप ही परम आलम्बन-स्वरूप बनकर उपकार करते हैं ।
स्वय श्री अरिहन्त परमात्मा के वरद हस्त से दीक्षित स्वय उन्ही के शिप्य-मुनिगण अपने जीवन के अन्त समय मे अनशन करते हैं तब वे प्रभु के नाम आदि निक्षेपारो के पालम्बन के द्वारा ही समस्त कर्म-वधनो से मुक्त होकर चार गति प स सार को छोडकर पांचवी गति रूप मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
___ अत श्री अरिहन्त परमात्मा के नाम, मूर्ति एव द्रव्य अवस्था रूपी निक्षेप को श्री अरिहन्त स्वरूप मानकर उसकी अनन्य उपासना करने का विधान जैन आगम शास्त्रो मे स्थान-स्थान पर किया गया है।
श्री अरिहन्त परमात्मा के असाधारण उपकार
श्री अरिहन्त परमात्मा, जिस प्रकार उपदेशो के द्वारा मोक्ष एव मोक्षमार्ग के दाता हैं, उसी प्रकार से वे स्वय भी मोक्षमार्ग स्वरूप हैं ।* .
जिस प्रकार उनके उपदेश और उनकी आज्ञा का पालन करने से भव्य जीवो को मोक्ष मिलता है, उसी प्रकार उनके नाम-स्मरण तथा दर्शन मात्र से भी भव्य जीवो को मोक्ष और मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति होती है ।
प्रभु-मूर्ति के दर्शन से हृदय मे जो शान्त भाव प्रकट होता है, वह दर्शक को प्रार्त-ध्यान और रौद्र-ध्यान से मुक्त करता है। प्रभु-मूर्ति के दर्शन से प्राप्त अप्रमत्त भाव जीव को वास्तविक जागति की ओर प्रेरित करता है । उच्चतम कोटि की अहिसा का स्पष्ट दर्शन प्रभु मूर्ति के दर्शन से होता है। विधि एव वहुमान-पूर्वक प्रतिष्ठित जिनेश्वर परमात्मा की मनहर मूर्ति के दर्शन से अमूर्त आत्म-स्वरूप को मूर्तिमन्त करने का भाव उत्पन्न होता है ।
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मग्गो तद्दायारो, सय च मग्गोत्ति ते पुज्जा । श्री विशेषावश्यक भाष्य-गाथा २६४८
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मिले मन भीतर भगवान