________________
भेद की दीवारो को धराशायी करने मे नाम स्मरण वज्र के समान है।
शब्द की अपेक्षा अनेक गुनी शक्ति प्राकृति में है, चित्र मे है, मूर्ति मे है और उसमे श्री वीतराग अरिहन्त परमात्मा की सौम्य रसमग्न प्रतिमा का स्थान अग्रगण्य है।
सूरिपुरन्दर श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी ने फरमाया है कि 'हे तीर्थकर परमात्मा ! मोर को देखकर दूर भागने वाले भुजगो की तरह अापकी प्रशान्त __ मूर्ति के दर्शन मात्र से कर्म रूपी भुजग तुरन्त दूर, वहुत दूर भागने लगते हैं।'
श्री जिन प्रतिमा को श्री जिनराज तुल्य कह कर शास्त्रवेत्ता महर्षियो ने उक्त विधान का स्वागत किया है।
उसी प्रकार से श्री अरिहन्त परमात्मा के जीवन की पूर्व एव उत्तर अवस्था पर निरन्तर मनन करने से स्वार्थाधता का क्रमश क्षय होता है और परमार्थ परायणता मे उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है, और अष्ट महा प्रातिहार्य युक्त समवसरण मे बिराजमान श्री तीर्थकर परमात्मा का दर्शन और ध्यान प्राणियो को प्रभु का प्रेमी बनाता है ।
इस प्रकार प्रात्म स्वरूप को प्राप्त करने और उसकी अनुभूति करने का सरलतम मार्ग भक्ति योग है।
आध्यात्मिक साधना मे श्री अरिहन्त परमात्मा किस तरह आलम्बनभूत होते हैं उस सम्बन्ध मे हम शास्त्र सम्मत चिन्तन करें जिससे वह मुमुक्षु साधको को साधना करने मे अत्यन्त हितकर एव प्रेरक सिद्ध हो।
किसी भी कार्य की उत्पत्ति तदनुकूल कारण-सामग्री प्राप्त होने पर एव कर्ता के उनका प्रयोग करने पर ही होती है।
कारण सामग्री मे मुख्यत. उपादान, निमित्त तथा उसके अनुरूप सहयोगी पदार्थों का समावेश होता है ।
मिले मन भीतर भगवान