________________
उत्कृष्ट जिन-भक्ति-प्रकाशक
वीतराग स्तोत्र, प्रथम प्रकाश
जिनकी महिमा का पार नहीं है, जिनमे सर्व भव-भय-हर सामर्थ्य है, समस्त इच्छाप्रो को उत्कृष्ट विश्व-प्रेम मे रूपान्तरित करने की अकल्पनीय शक्ति है, उन श्री वीतराग अरिहन्त परमात्मा की उत्कृष्ट भक्ति से ओत-प्रोत वीतराग-स्तोत्र के प्रथम प्रकाश मे अब हम अपनी समग्रता को भावपूर्वक स्नान करायें।
य परात्मा परज्योति , परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवणं तमसः परस्तादामनन्ति यम् ।।१।।
अर्थ-जो समस्त ससारी जीवो से श्रेष्ठ, केवल ज्ञानी एव परमेष्ठियो मे प्रधान हैं, जिन्हे पण्डितगण अज्ञान के पार-गामी एव सूर्य के समान पूर्ण ज्योतिर्मय उद्योत करने वाला मानते हैं ।(१)
सर्वे येनोदमूल्यन्त, समूला क्लेशपादपा । मूर्ना यस्मै नमस्यन्ति, सुरासुरनरेश्वराः ॥२॥
अर्थ-जिन्होने राग-द्वेष आदि समस्त क्लेश-वृक्षो को मूल से उखाड़ डाला है, जिन्हे सुर, असुर, मनुष्य एव उनके अधिपति शीश झुकाकर प्रणाम करते हैं-अर्थात् जो तीन लोको के प्राणियो के लिये वन्दनीय पूजनीय है ।(२)
प्रावर्त्तन्त यतो विद्या , पुरुषार्थ प्रसाधिका.। यस्य ज्ञान भवद्-भावि-भूत-भावावभासकृत् ॥३॥
अर्थ-जिनके द्वारा पुरुषार्थ को सिद्ध करने वाली शब्द आदि विद्यायें प्रवर्तित हुई हैं, जिनका ज्ञान वर्तमान, भावि एव भूत-तीनो कालो के समस्त भावो को प्रकट करने वाला है, प्रकाशित करने वाला है ।(३) ।
मिले मन भीतर भगवान