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अत्यन्त प्रभावशालीजनु-भक्ति
सुख कहां है ?
कोई भी मानव अपने मन एव इच्छाओ पर नियन्त्रण किये विना वास्तविक सुख अथवा शान्ति का अनुभव नही कर सकता । भौतिक सुखो की विपुल सामग्री एकत्रित करके उनके उपभोग के द्वारा मानव स्वय को सुखी एव समृद्ध बनाने का प्रयास करता है परन्तु वह सम्भब ही है। उसका कारण यह है कि उक्त सामग्री मे चेतन के धर्म का तनिक अश भी नही होता, तो फिर सच्चे सुख की सम्भावना कैसे की जा सकती है ?
उसमे पाँचो इन्द्रियो के विषयो को बहलाने की योग्यता अवश्य होती है, परन्तु किसी भी व्यक्ति की इन्द्रिया इस प्रकार कभी तृप्त नहीं हुई, होती ही नही । घी से अग्नि शमन नही होती वरन् अधिक उद्दीप्त होती है । उसी प्रकार से बाह्य सामग्री के भोगोपभोग से इन्द्रियाँ सन्तुष्ट न होकर अधिक तीव्र बनती हैं।
अत. अनुभवी महान् सन्त पुरुषो ने इस प्रकार की सामग्री एव उसके भोगोपभोग से प्राप्त होने वाले सुख को भ्रामक कह कर उसमे भ्रमित नही होने का फरमाया है।
इच्छाएं आकाश की तरह अनन्त हैं । मानव की एक इच्छा सतुष्ट न हो, तब तक तो अन्य सैकडो इच्छाएँ उसके मन पर नियन्त्रण कर लेती हैं और उसकी तृप्ति का कल्पित आनन्द क्षण भर मे अतृप्ति की ज्वाला मे परिवर्तित हो जाता है ।
मिले मन भीतर भगवान