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पत्र तेईसवाँ
अवधान-प्रयोग
प्रिय बन्धु,
__ पिछले पत्र के द्वारा तुम समझ गये होगे कि सामान्य मनुष्य को जो चीज असाधारण लगती है, वह बुद्धि और स्मृति के उचित विकास से साधी जा सकती है। इस बात की विशेष प्रतीति अवधान प्रयोग दिलवाते हैं।
अवधान-प्रयोग अर्थात् अवधान के प्रयोग । 'अवधान' शब्द सामान्यतया धारण करना, न्यान मे लेना यह अर्थ बताता है । वह यहाँ परम्परा से ग्रहण, धारण और उद्बोधन इन तीनो का सयुक्त अर्थ सूचित करना है। इसलिए जिन प्रयोगो मे, अलग-अलग मनुष्यो द्वारा कहे हुए अलग-अलग विषयो को एक के बाद एक ग्रहण किया जाता है और उन समस्त को याद रखकर पीछे तुरन्त ही क्रमश दुहराया जा सके, उन्हे अवधान-प्रयोग कहते है । इनमे कुछेक विषय मूल क्रम मे ही कहने के होते है। कुछेक के प्रत्युत्तर देने होते है और कितनेक प्रश्नो के साथ जुड़ी, उन उन शर्तो को पूरा करना होता है। इस तरह जो पाठ विषयो को धारण कर सकते है, वे अष्टावधानी कहलाते है जो सौ विषयो को धारण कर सकते है, उन्हे शतावधानी कहा जाता है और जो हजार विषयो को धारण कर सकते है वे सहस्रावधानी कहलाते है। हमारे देश मे हुए अवधानकारो के समुदाय मे से कुछेक का परिचय निम्नोक्त पक्तियो द्वारा मिलता है
श्री मुनिसुन्दर सूरीरवधानसहस्रकारक ख्यातः । व्याकरण-न्याय-गणितादिषु निष्णात कविप्रधानोऽभूत् ।।१०।। श्रीमद् - यशोविजय - वाचकपुङ्गवोऽभूत् , सिद्धयम्बरेन्दु (१०८) कलिताल्ललितार्थवित्तान् ।