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५६ १ स्मरण कला
उसकी कलात्मकता उनकी शिल्प-शक्ति की ही आभारी है। जबकि महारानी कल्पना कुमारी ने तो रग सजावट के सिवाय दूसरा कुछ भी कार्य नही किया। इसलिए इस मन्दिर की शोभा का समस्त श्रेय उन्हे देना बिल्कुल भी उचित नही। इसमें तो इन बुजुर्ग व्यक्तियों का एक प्रकार से अपमान ही है।
महाराज उत्साह का यह वक्तव्य चचलता देवी के प्रार-पार निकल गया। वे अपनी भावना को प्रकट करने के लिए खड़ी होना ही चाहती थी कि उसके पास मे बैठी एकाग्रता ने उसको समझा कर विठा दिया। . .
___ श्रीमती स्मृति देवी वातावरण को लख गयी इसलिए खड़ी होकर मुस्कान बिखेरती हुई कहने लगी-माननीय सद्गृहस्थो और सन्नारियो! आप सब हमारे महान अतिथि है। इस मन्दिर की सजावट में आप लोगो का किसी न किसी प्रकार से हिस्सा है, इसे मैं स्वीकार करती है। पर महारानी कल्पना ने जो कार्य किया है, वह हम सबमें कोई भी न कर सका । हम सब के हाजिर होते हुए भी यह मन्दिर सूनसान था। उसमें कचरे के ढेर इकट्ठ हो गये थे। प्रकाश के झरोखे बन्द हो गये थे और सघन तिमिर व्याप्त हो गया था।
मकान की दीवारें मजबूर हों, उसका द्वार सुदृढ हो, उसकी कमाने सुन्दर इतने मात्र से कोई उत्सव की योजना नही हो सकती।
___ कुछ दिन पूर्व महारानी कल्पना कुमारी यहाँ आई थी। वे मनोमन्दिर की दशा देखकर व्यग्र हो उठी । उन्होने मुझसे कहाकिआप सब के हाजिर होते हुए मनौमन्दिर की ऐसी हालत कैसे ?
मैंने कहा-महारानी सब अपने-अपने धन्धे मे लगे हुए हैं। क्षुधादेवी, तृष्णादेवी तथा लज्जादेवी को अपने काम के सिवाय दूसरा कोई शौक ही नही है और शौक हो तो भी कोई कार्य मे कुशलता नही है । तृष्णादेवी को जब देखो तब ही कुछ न कुछ नया प्राप्त करने की उलझन मे पड़ी रहती है। इसलिए उसे दूसरा कुछ करने की फुर्सत नही है। एकाग्रता जहाँ बैठी थी, वहाँ से उठती