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( १२ ) तो झट से लिख मारा कि इन जातियों को रनमभसूरि ने जैन बना दिया। पर विचारने की बात तो यह है कि उस समय इन जातियों का अस्तित्व तो क्या पर उस वक्त के बाद अनेक शताब्दियों तक भी इनका अस्तित्व नहीं था। ऐसी हालत में रत्नप्रभसरि के समय उक्त जातियों के अस्तित्व का लिख मारना कहाँ की विद्वता समझी जा सकती है। यदि यह कह जाय कि ये बातें किसी अन्य प्रन्थ में से देख के ही लिखी हैं तो इस लेखमाला की फिर कितनी कीमत समझी जा सकती है ?। आप की लेखमाला की प्रामाणिकता और आपके हृदय की दूषित भावना का यह एक छोटा किन्तु सारवान नमूना है। विशेष सुज्ञ पाठक स्वयं आपके प्रमाणों को देख कर निर्णय करें। आपकी इस लेखमाला का प्रतिवाद हमने उन्हीं दिनों में लिखकर तैयार कर दिया था, परन्तु हमारे विद्वद्वर्य मुनिश्री न्यायविजयजी महाराज उस गुजराती लेखमाला का प्रत्युत्तर गुजराती भाषा में ही उसी समय जैन ज्योति अस्त्रबार द्वारा दे रहे थे । इस कारण हमने हमारे प्रतिवाद को छपाने से रोक दिया तथा एक कारण यह भी था कि इस संगठन युग में ऐसी खण्डन मण्डनात्मक विरोधद्धिनी प्रवृति को प्रोत्साहन देना भी हम बुरा समझते हैं। किन्तु जब हमारे भाई मिथ्या लेख लिख अकारण भद्रिक जनता में गलत फहमी फैलाने का प्रयत्न करने लगते हैं तब इच्छा के न होते हुए भी सत्य घटना को जनता के सामने रखने के लिए लेखनी हाथ में लेनी पड़ती है।
२-आचार्य रखप्रभसूरि ने जिन क्षत्रियों को जैन बनाये वे प्रायः सूर्यवंशी चन्द्रवंशी आदि और इनकी शाखा प्रति शाखा के ही थे। देखो मेरी लिखी 'भोसवालात्पत्ति विषय शंका समाधान' नामक पुस्तक ।
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