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सप्ततिकाप्रकरण निर्णय हो जाने पर दूसरेका निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलती है। अपर हम अन्यकर्ताके विपयमें निर्देश करते समय यह सभावना प्रकट कर पाये हैं कि या तो शिवशर्मसूरिने इसकी रचना की है या इसके पहले ही यह लिखा गया था। साधारणत शिवशम सूरिका वास्तव्यकाल विक्रमकी पांचवीं शताब्दि माना गया है । इस हिसावसे विचार करनेपर इसका रचनाकाल, विक्रमकी पांचवी शताब्दी या इससे पूर्ववर्तीकाल ठहरता है। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपनी विशेषणवती अनेक वार मित्तरीका उल्लेख किया है। श्री जिनभद्गगणि क्षमाश्रमणका काल विक्रमकी सातवीं शताब्दि निश्चित है, अतः पूर्वोक कालको यदि आनुमानिक हो मान लिया जाय तब भी इतना तो निश्चित ही है कि विक्रमकी सातवीं शताब्दिके पहले इसकी रचना हो गई थी। इसकी पुष्टि दिगम्बर परम्परामें प्रचलित प्राकृत पंचसंप्रहसे भी होती है। प्राकृत पचमाह का सकलन विक्रमझी सातवीं शताब्दिके आस-पास हो चुका था। इसमें सप्ततिका सकलित है अत: इसकी रचना प्राकृन पंचसंग्रहके रचनाकालसे पहले हो गई थी यह निश्चित होता है। ____टीकाएँ-यहाँ भव सप्ततिकाकी टीकाओंका सक्षेपमें परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रथम कर्मग्रन्थ के पृष्ठ १७५ पर श्वेताम्बरीय कर्म विषयक अन्योंकी एक सूची छपी है । उसमें सप्ततिकाकी अनेक टीका टिप्पनियोंका उल्लेख है। पाठकों की जानकारीके लिये आवश्यक संशोधनके साथ हम उसे यहाँ दे रहे हैं।
(१) सयरीए मोहवट्ठाणा पंचादो कया पंच। अनिअटियो छलत्ता णवादोदीरणा पगए ।।६०॥ आदि । विशेषणपती ।