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प्रस्तावना 'खीणकमायदुचरिमे णिहं पयल च हणइ छतमत्यो। भावरणमतराए छउमत्यो चरिमसमयम्मि ॥ ६ ॥ सभिन्नं पासंतो लोगमलोग च सव्वभो सन्छ ।
तं नस्थि ज न पासाइ भूय सन्चं भविरस च ॥७॥ इनमेंमे ४, ५ और ६ नम्बरकी तीन गाथाएँ दिगम्बर परम्पराके सप्ततिकाकी मूल गाथाएँ है । ये गाथाएँ आचार्य मलयगिरिको टीकामें भी निबद्ध है। इनमसे छह नम्बरकी गाथा का तो भाचार्य मलयगिरिने 'तथा चाह सूत्रकृत' कह कर उल्लेख भी किया है।
मालूम होता है कि 'गाहग सयरीए' यह गाथा इसी चूर्णिके आधारसे लिखी गई है। इससे दो बातोंका पता लगता है एक तो यह कि चन्द्रपिमहत्तर उक्त पूणि टीकाके ही कर्ता है सप्ततिकाके नहीं और इमरी यह कि चन्द्रर्पिमहत्तर इन ८९ गाथाओंको किसी न किसी रूपमै सप्ततिकाकी गाथाएँ मानते थे। ___ इस प्रकार यद्यपि चन्द्रर्पि महत्तर समतिकाके कर्ता हैं इस मतका निरसन हो जाता है तथापि किस महानुभावने इस अपूर्व कृतिको जन्म दिया था इस बातका निश्चयपूर्वक कथन करना कठिन है। बहुत सम्भव है कि शिवपार्म सूरिने ही इसकी रचना की हो। यह भी सम्भव है कि अन्य आचार्य द्वारा इसकी रचना की गई हो।
रचनाकाल-ग्रन्थकर्ता और रचनाकाल इनका सम्बन्ध है । एकका
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(१) देखो चूणि प० ६६ । (२) देखो चूणि १० ६७।