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प्रस्तावना
इस हिमापसे विचार करने पर कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका ये तीनों अन्य एक वर्तुक मिद्ध होते हैं।
दिन्तु क्मंप्रकृति और सप्ततिकाका मिलान करने पर ये दोनों एक आचार्यकी कृति हैं यह प्रमाणित नहीं होता, क्योंकि इन दोनों प्रन्यों में विरुद्ध दो मतों का प्रतिपादन किया गया है । उदाहरणार्थ-सप्ततिकामें अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उपशम प्रकृति बतलाया गया है। किन्तु कर्माकृतिक उपशमना प्रकरणमें 'नतरकरणं उवममो वा' यह कहकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमविधि और अन्तरकरण विधिका निषेध किया गया है।
इस परसे निम्न तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं
१-क्या शिवराम नामके दो श्राचार्य हुए है एक वे जिन्होंने शतक और मतिकाकी रचना की है और दूसरे वे जिन्होंने कर्मप्रकृतिकी रचना की है ?
२-शिवराम आचार्यने कर्मप्रकृतिको रचना की, क्या यह किंवदनीमात्र है?
३-शतक और ममतिकाकी कुछ गाथाओंमें समानता देखकर एककर्तृक मानना कहाँ तक उचित है ?
यह भी सम्भव है कि इनके सकलयिता एक ही आचार्य हो। किन्तु इनका संकलन विभिन्न दो श्राधारों से किया गया हो । जो कुछ भी हो । तत्काल उक्त आधारसे सप्ततिकाफे कर्ता शिवशर्म ही हैं ऐसा निश्चित कहना विचारणीय है।
एक मान्यता यह भी प्रचलित है कि सप्ततिकाके कर्ता चन्द्रपि महसर है। किन्तु इस मतकी पुष्टिमें कोई सवल प्रमाण नहीं पाया जाता। सहतिकाकी मृल ताडपत्रीय प्रतियों में निम्नलिखित गाथा पाई जाती है
'गाहग सयरीए चंदमहत्तरमयाणुमारीए । टीगाइ निमिभाण एगणा होइ नई ओ ।'