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सप्ततिकाप्रकरण है। जैसे सप्ततिकाकी अन्तिम गाथा में ग्रन्यकर्ता अपने लाघवको प्रकट करते हुए लिखते हैं कि 'अल्पज्ञ मैंने त्रुटित रूप से जो कुछ भी निवद्ध किया है उसे बहुश्रुत के जानकार पूरा करके कथन कर। वैसे ही शतककी १०५ वीं गाथामें भी इसके कर्ता निर्देश करते हैं कि 'अल्पश्रुतवाले अल्पज्ञ मैंने जो बन्धविधानका सार कहा है उसे बन्ध-मोक्ष की विधिमें निपुण जन पूरा करके कथन करें।' इमरी गाथाके अनुरूप एक गाथा कर्म प्रकृति में भी पाई जाती है। गाथाएँ ये हैं
वोच्छ सुण संखेवं नीसंद दिहिवायस्स ॥१॥ सप्तनिका । कम्ममवायसुयसागरस णिस्सदमेत्ताओ ॥१०॥ शतक । जो जत्य अपडिपुत्लो अत्यो अप्पागमेण बद्धो त्ति । तं खमिकण बहुसुया पूरेजणं परिकहतु ॥७२॥ सप्ततिका । बंधविहाणसमामो रहमओ अप्पसुयमदमहणा उ ।
त वधमोक्खणिरणा पूरेजणं परिकहति ॥१०५॥ शतक । इनमें णिम्संद, अप्पागम, अप्पसुयमदमह, पूरेऊणं परिकहंतु ये पद ध्यान देने योग्य है।
इन दोनों ग्रन्थोंका यह साम्य अनायास नहीं है। ऐसा माम्य सन्हीं ग्रन्थों में देखने को मिलता है जो या तो एक कर्तृक हों या एक दूसरेके आधारसे लिखे गये हों। बहुत सम्भव है कि शतक और सप्ततिका इनके कर्ता एक प्राचार्य हों।
गतककी चर्णिमें शिवशर्म प्राचार्यको उमका को बनलाया है। ये वे ही शिवशर्म प्रतीत होते हैं जो कर्मप्रकृतिके कर्ना माने गये हैं।
(6) केण कय ति, शब्दतर्कन्यायप्रकरणमप्रकृतिसिद्धान्तविजाणएण अणेगवायसमालद्धविजएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय । पृ० १