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सप्ततिकाप्रकरण १-लेखकों या गुजराती टोकाकारों द्वारा अन्तर्भाप्य गाथाओंका मूल गाथा रूपसे स्वीकार किया जाना ।
२-दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाकी कतिपय गाथाओंका मूल गाधारूपसे स्वीकार किया जाना।
३-प्रकरणोपयोगी अन्य गाथाओंका मूल गाथारूपसे स्वीकार किया जाना।
जिन प्रतियों में गाथाओंकी संख्या ६१,६२,९३ या ९४ दी है उनमें दस अन्तर्भाप्य गाथाएँ, दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाको पाँच गाथाएँ और शेप प्रकरणसम्बन्धी अन्य गाथाएँ सम्मिलित हो गई हैं। इससे गाथाओंकी सख्या अधिक बढ़ गई है। यदि इन गाथाओंको अलग कर दिया जाता है तो इसकी कुल ७२ मूल गाथाएँ रह जाती हैं। इन पर चूणि और मलयगिरि भाचार्यको संस्कृत टीका ये दोनों पाई जाती हैं अन इस आधारसे मूल गाथाओं की संख्या ७२ निर्विवाद रूपसे निश्चित होती है। मुनि कल्याणविजयजीने प्रात्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित होनेवाले ८६ रत्न शतक और सप्ततिकाकी' प्रस्तावनामें इसी आधारको प्रमाण माना है।
किन्तु मुकावाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे चूर्णिसहित जो सप्ततिका प्रकाशित हुई है उसमें उसके सम्पादक प. अमृतलालजीने 'चत पणवीसा सोलस' इत्यादि २५ नम्बरवाली गाथाको मूल गाथा न मानकर सप्ततिकाकी कुल ७१.गाथाएँ मानी हैं उनका इस सम्बन्धमें यह वक्तव्य है
'परन्तु अमोए मा प्रकाशनमा सित्तरीनी ७१ गाथाोज मूल तरीके मानी छ । तेनु कारण ए छे के उपर्युक्त कर्मग्रन्थ द्वितीय विभागमा 'चट पणुवीसा - सोलस' (गा-२५) ए गाथाने तेना सम्पादक श्री ए
१-देखो प्रस्तावना पृष्ठ १२ व १३ ।