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प्रस्तावना
मूल गाथा तरीके मानी लीधी छे परन्तु ए गाथाने पूर्णिकारे 'पाठंतर' लखीने पाठान्तर गाथा तरीके निर्देशी छे; एटले 'चठ पणुवीसा सोलस' गाथा मूलनी नथी ए माटे चूर्णिकारनो सचोट पुरावो होवाथी सित्तरी प्रकरणनी ४१ गाथाओ घटित थाय छ। भाष गाथाने मगल गाथा तरीके ममजवाथी मित्तरीनी मित्तेर गाथाओ थई जाय छ ।'
किन्तु इस गाथाके अन्तमें केवल 'पाढतर' ऐमा लिखा होनेसे इसे मूल गाथा न मानना युक प्रतीत नहीं होता। जव इस पर चूर्णि और आचार्य मलयगिरिको टीका दोनों हैं तब इसे मूल गाया मानना हो उचित प्रतीत होता है। हमने इसी कारण प्रस्तुत सस्करणमें ७२ गाथाएं स्वीकार की हैं। इनमें से अन्तकी दो गाथाएँ विषयकी समाप्तिके चाद भाई हैं प्रत. उनकी गणना नहीं करने पर ग्रन्थका खित्तरी यह नाम सार्थक ठहरता है।
ग्रन्थकर्ता-सप्ततिकाके रचयिता कौन थे, अपने पावन जीवनसे किस भूमिको उन्होंने पवित्र किया था, उनके माता-पिता कौन थे, दीक्षा गुरु
और विद्यागुरु कौन थे, इन सब प्रश्नोंके उत्तर पानेके वर्तमानमें कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं। इस समय समतिका और उसकी दो टीकाएँ हमारे सामने हैं। कर्ताक नाम डामके निर्णय करनेमें इनसे किसी प्रकारकी सहायता नहीं मिलती। । यद्यपि स्थिति ऐसी है तथापि जब हम शतककी अन्तिम १०४ व १०५ नम्बरवाली गाथाओंसे सप्ततिकाकी मगल गाथा और अन्तिम गाथाका क्रमश. मिलान करते हैं तो यह स्वीकार करनेको जो चाहता है कि बहुत मम्मव है कि इन दोनों अन्योंके सकलयिता एक ही श्राचार्य हों।
जैसे सप्ततिकाको मगल गाथा, इस प्रकरणको दृष्टिवाद अंगकी एक दके समान बतलाया है वैसे ही शतककी १०४ नम्बरवाली गाथामें भी उमे कर्मप्रवाद श्रुतरूपी सागरकी एक बूदके समान बतलाया गया