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अङ्गिरः, अङ्गिरस् (पुं०) [अङ्ग+अस्+इस्ट्] ऋग्वेद के की भांति अपने पैर का अंगूठा चूसने वाला-स्कन्धः ___ अनेक सूक्तों का द्रष्टा एक प्रसिद्ध ऋषि;-(ब० व.) टखना । अंगिरा ऋषि की सन्तान ।
| अच् (भ्वा० उभ० इदित् अक० वेट्) [ अचति-ते, अङ्गीकरणम्, अङ्गीकारः, अङ्गीकृतिः (स्त्री०) [अङ्ग+ अञ्चति, आनञ्च, अञ्चित,-अक्त] 1 जाना, हिलना;
वि++ल्युट्,-कृ+घञ, कृ+क्तिन्] 1. स्वी- 2 सम्मान करना, प्रार्थना करना आदि; दे० 'अञ्च' कृति 2. सहमति, प्रतिज्ञा, जिम्मेदारी आदि।
से संबद्ध --च् (पुं०) [व्या०] स्वरों के लिए प्रयुक्त अङ्गीय (वि.) [अङ्ग+छ] शरीर संबन्धी।
शब्द । अङ्गः [अङ्ग-+-उन्] हाथ ।
अचक्षुस् (वि०) [ न० ब० ] नेत्रहीन, अंधा; विषय अगरिः-री-दे० अंगुलि।
(वि०) अदृश्य, (नपुं०) [न० त०] खराब आँख, अङाल: [अङ्ग + उलच्] 1. अंगली 2. अंगठा (नपं० । रोगी आँख ।
भी), 3. अंगुल भर की नाप (नपुं० भी) जो ८ जौ अचण्ड (वि.) [न० त०] जो क्रोधी स्वभाव का न हो, के बराबर होती है, १२ अंगलियों की एक 'वितस्ति' शान्त, सौम्य। या बालिस्त और २४ अंगुलियों का एक 'हाथ' का नाप | अचतुर (वि०) [न० ब०] 1 'चार' की संख्या से रहित होता है।
2 [न० त०] अनाड़ी। अङगलि:-ली, अगुरिः-री(स्त्री०) [अंग+उलि] 1. अंगुली अचर (वि.) [न० त०] स्थिर-चराचरं विश्वं-कुमा०
(पांचों अंगलियों के नाम--अंगुष्ठ, तर्जनी, मध्यमा, २।५ -चराणामन्नमचरा:-मनु० ५।२९।। अनामिका और कनिष्ठा या कनिष्ठका है)-पैरका| अचल (वि.) [न० त०] दढ़, स्थिर, निश्चित, स्थायीपंजा-पांव की अंगुली कहलाती हैं 2. अंगठा, पैर का चित्रन्यस्तमिवाचलं चामरम-विक्रम. ११४,-ल: 1 अंगूठा 3. हाथी की सुंड की नोक 4. 'अंगुल नाप विशेष । पहाड़, (कहीं २) चट्टान 2 काबला या कील 3 सात सम० तोरणं मस्तक पर चन्दन का अर्ध चन्द्राकार की संख्या,-ला पृथ्वी,-लं ब्रह्म। सम-कन्यका, तिलक;---त्राणं अंगठे की रक्षा के निमित्त बना एक ----तनया, ---दुहिता, -सुता हिमालय पर्वत प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं; - मुद्रा, की पुत्री पार्वती" -कीला पृथ्वी;-ज, ----जात -मुद्रिका मोहर लगाने की अंगूठी,-मोटनं,-स्फोटनं (वि.) पहाड़ पर उत्पन्न, -जा, -जाता पार्वती; चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना;-संज्ञा अंगुलियों -त्विष् (पुं०) कोयल,-विष् (पुं०) पर्वतों का शत्र, से संकेत-मुखापितकाङगुलिसंज्ञयैव-कुमा० ३१४१; इन्द्र का विशेषण जिसने पहाड़ों के पंख काट दिये थे।
-संदेशः अंगुलियों के इशारे से संकेत करना;-संभूतः अचापल-ल्य (वि.) [न.ब.] चंचलतारहित, स्थिर, नाखुन ।
लं-ल्यं [न० त०] स्थिरता।। अङ्गुलिका-अंगुलि: ।
अचित् (वि०) वै० [न+चित्+क्विप्न० त०] अङगली-(री) यं,-क-यकं अंगरि (लि)+छ-स्वार्थे कन]
म गर 1ि -स्वार्थ कत| 1 समझदारी से रहित, 2 धर्मशून्य 3 जड़। अंगठी-तव सुचरितमङगुलीयं नूनं प्रतनु ममेव-श. | अचित (वि.) वै० [न चित-इति न० त०] 1 गया ६।१०;-(पुं०भी)-काकुत्स्थस्याङगुलीयक: भट्टि० __ हुआ 2 अविचारित 3 एकत्र न किया हुआ। ८१११८ ।
अचित्त (वि.) [न० ब०] 1. अकल्पनीय 2. बुद्धिरहित, अङ्गुष्ठः [अंगु+स्था+क] 1. अंगठा, पैर का अंगठा 2. | अज्ञान, मूर्ख 3. न सोचा हुआ।
'अंगूठा भर' नाप विशेष जो अंगुल के समान होती है। अचिन्तनीय-अचिन्त्य (वि०) [नत्र +चिन्त+अनीयर्, सम०-मात्र (वि.) अंगूठे की लम्बाई के बराबर
चित् + यत् जो सोचा भी न जा सके, समझ से परे, पुरुषं निश्चकर्ष बलाद्यम:-महा० ।।
-यस्तु तव प्रभाव:-रघु० ५।३३, -स्यः शिव। अगष्ठयः [अङ्गुष्ठे भव:-यत्] अंगठे का नाखून ।
अचिन्तित (वि.) [न० त०] अप्रत्याशित, आकस्मिक, अङ्गुषः [अङ्ग् ! ऊपन्] 1. नेवला 2. तीर ।
पंच०२।३। अङ्घ (भ्वा० आ० अक० सेट् )[अङ्घते-अधित] 1. जाना. | अचिर (वि.) [न० त०] 1. संक्षिप्त, क्षणिक, क्षणस्थायी,
2. आरंभ करना 3. शीघ्रता करना 4. धमकाना। दे० °द्युति, भास्, प्रभा आदि 2. नया-रघु०८।२०% अङ्घस् (न०) [अध्+असुन] पाप-वेणी० १११२, समस्त पदों में 'अचिर' का अर्थ है-हाल में, अभी, (पाठांतर)
कुछ ही पहले-प्रवृत्तं ग्रीष्मसमयमधिकृत्य-श० १ अंघ्रिः-अंहिः-[अधु+क्रिन्] 1. पैर 2. वृक्ष की जड़ अभी अभी, प्रसूता-श० ४-अभी २ जिसने बच्चे को
3. श्लोक का चौथा चरण । सम०-पः वृक्ष-दिक्षु पैदा किया है (यह एक हरिणी के विषय में कहा गया व्यूढाध्रिपाङ्गः-वेणी० २११८,-पान (वि.) बच्चे । है जो प्रसवोपरान्त चल बसी है)-अथवा गाय जिसने
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