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• अर्बयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर, पतिकी बातें सुनकर ऐसा विचार कर इन्द्रने दितिसे कहा-'माँ ! मेरा दिति विधिपूर्वक उनका पालन करने लगीं। इससे अपराध क्षमा करो, मैने अर्थशास्त्रका सहारा लेकर यह इन्द्रको बड़ा भय हुआ। वे देवलोक छोड़कर दितिके दुष्कर्म किया है। इस प्रकार बारम्बार कहकर उन्होंने पास आये और उनकी सेवाकी इच्छासे वहाँ रहने लगे। दितिको प्रसन्न किया और मरुद्रणोंको देवताओंके समान इन्द्रका भाव विपरीत था, वे दितिका छिद्र ढूँढ़ रहे थे। बना दिया। तत्पश्चात् देवराजने पुत्रोंसहित दितिको बाहरसे तो उनका मुख प्रसन्न था, किन्तु भीतरसे वे विमानपर बिठाया और उनको साथ लेकर वे स्वर्गको भयके मारे विकल थे। वे ऊपरसे ऐसा भाव जताते थे, चले गये। मरुद्रण यज्ञ-भागके अधिकारी हुए; उन्होंने मानो दितिके कार्य और अभिप्रायको जानते ही न हों। असुरोंसे मेल नहीं किया, इसलिये वे देवताओंके परन्तु वास्तवमें अपना काम बनाना चाहते थे। तदनन्तर, प्रिय हुए। जब सौ वर्षकी समाप्तिमें तीन ही दिन बाकी रह गये, तब भीष्मजीने कह-ब्रह्मन् ! आपने आदिसर्ग दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपनेको कृतार्थ मानने और प्रतिसर्गका विस्तारके साथ वर्णन किया। अब लगीं तथा उनका हृदय विस्मयविमुग्ध रहने लगा। उस जिनके जो स्वामी हों, उनका वर्णन कीजिये। दिन वे पैर धोना भूल गयीं और बाल खोले हुए ही सो पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! जब पृथु इस पृथ्वीके गयीं। इतना ही नहीं, निद्राके भारसे दबी होनेके कारण सम्पूर्ण राज्यपर अभिषिक्त होकर सबके राजा हुए, उस दिनमें उनका सिर कभी नीचेकी ओर हो गया। यह समय ब्रह्माजीने चन्द्रमाको अन्न, ब्राह्मण, व्रत और अवसर पाकर शचीपति इन्द्र दितिके गर्भमें प्रवेश कर तपस्याका अधिपति बनाया। हिरण्यगर्भको नक्षत्र, तारे, गये और अपने वज्रके द्वारा उन्होंने उस गर्भस्थ बालकके पक्षी, वृक्ष, झाड़ी और लता आदिका स्वामी बनाया। सात टुकड़े कर डाले। तब वे सातों टुकड़े सूर्यके समान वरुणको जलका, कुबेरको धनका, विष्णुको आदित्योंका तेजस्वी सात कुमारोंके रूपमें परिणत हो गये और रोने और अप्रिको वसुओंका अधिपति बनाया। दक्षको लगे। उस समय दानवशत्रु इन्द्रने उन्हें रोनेसे मना किया प्रजापतियोंका, इन्द्रको देवताओंका, प्रह्लादको दैत्यों और तथा पुनः उनमेंसे एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दानवोंका, यमराजको पितरोंका, शूलपाणि भगवान् दिये। इस प्रकार उनचास कुमारोके रूपमें होकर वे शङ्करको पिशाच, राक्षस, पशु, भूत, यक्ष और जोर-जोरसे रोने लगे। तब इन्द्रने'मा रुदध्वम्' (मत वेतालराजोंका, हिमालयको पर्वतोंका, समुद्रको रोओ) ऐसा कहकर उन्हें बारम्बार रोनेसे रोका और नदियोंका, चित्ररथको गन्धर्व, विद्याधर और किन्नरोंका, मन-ही-मन सोचा कि ये बालक धर्म और ब्रह्माजीके भयङ्कर पराक्रमी वासुकिको नागोंका, तक्षकको सपोका, प्रभावसे पुनः जीवित हो गये हैं। इस पुण्यके योगसे ही गजराज ऐरावतको दिग्गजोंका, गरुड़को पक्षियोंका, इन्हें जीवन मिला है, ऐसा जानकर वे इस निश्चयपर उचैःश्रवाको घोड़ोंका, सिंहको मृगोंका, साँड़को गौओंका पहुंचे कि 'यह पौर्णमासी व्रतका फल है। निश्चय ही इस तथा पक्ष (पाकड़) को सम्पूर्ण वनस्पतियोंका अधीश्वर व्रतका अथवा ब्रह्माजीकी पूजाका यह परिणाम है कि बनाया। इस प्रकार पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इन सभी वज्रसे मारे जानेपर भी इनका विनाश नहीं हुआ। ये अधिपतियोंको भित्र-भिन्न वर्गके राजपदपर अभिषिक्त एकसे अनेक हो गये, फिर भी उदरकी रक्षा हो रही है। किया था। इसमें सन्देह नहीं कि ये अवध्य है, इसलिये ये देवता कौरवनन्दन ! पहले स्वायम्भुव मन्वन्तरमें याम्य हो जायें। जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भके नामसे प्रसिद्ध देवता थे। मरीचि आदि मुनि ही सप्तर्षि बालकोंको 'मा रुदः' कहकर चुप कराया है, इसलिये ये माने जाते थे। आग्नीघ्र, अग्निबाहु, विभु, सवन, 'मरुत्' नामसे प्रसिद्ध होकर कल्याणके भागी बनें।' ज्योतिष्मान्, द्युतिमान्, हव्य, मेधा, मेधातिथि और