Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथमा
अन्वयार्थ - ततः = उससे आगे, हावली = प्रासादों महलों की पंक्ति,
अनुत्तमम् = स्तरानुसार उत्तम. देवक्रीडास्थानम् = देवताओं के लिये क्रीड़ा स्थल, (भवति = होता है), यात्रास्थिताः = जहाँ स्थित रहने वाले, देवाः = देवतागण, विचित्रक्रीडामिः = अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं के, (सह = साथ), विहरन्ति
= वि. करते हैं। श्लोकार्थ - कल्पवृक्षों के वन के आगे देव प्रासाद और क्रीडोद्यान होते
हैं जो देवताओं के वैभव के अनुसार ही उत्तम होते हैं। इन प्रासादों में रहने वाले देवतागण अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं
के साथ विहार करते हैं। ततः स्फटिकसालोऽपि पूर्ववर्णितो बुधैः । विशेषो वर्ण्यतेऽस्माभिः संक्षेपेणैव सज्जनाः ।।८६।। अन्चयार्थ - ततः = उससे आगे, स्फटिकसालः = स्फटिक की दमकती
मणियों वाला तृतीय परकोटा, अपि = भी. पूर्ववत् = पूर्व यर्णित के समान ही, बुधैः - विद्वज्जनों द्वारा, वर्णितः = वर्णित किया गया है, सज्जनाः == है सज्जनो!, अस्माभिः = हमारे द्वारा, संक्षेपेण एव = संक्षेप से ही, विशेषः = विशिष्ट, वाते
-- वर्णित किया जाता है। श्लोकार्थ - उस रूप्यसाल परकोटे से आगे स्फटिक साल नामक तृतीया
परकोटा है जो पूर्ववत् वर्णित के समान ही विद्वज्जनों ने बताया है। जो विशेषता है उसे कवि संक्षिप्त रूप से यहाँ
वर्णित कर रहा है। कोष्ठा द्वादश सम्प्रोक्तास्तन्मध्ये विस्तृताः शुभाः ।
तत्र स्थानाश्रितान्वक्ष्ये गणेशाद्यान्यथाक्रमम् ।।८७।। अन्वयार्थ · तन्मध्ये = उस स्फटिकसाल परकोटे के भीतर, विस्तृताः =
बहुत बडे या लम्बे-चौड़े, शुभाः = स्वच्छ पावन, द्वादश : बारह, कोष्टा = कक्ष या कोठे, यथानमम् = जैसा क्रम है