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महोपाध्याय समयसुन्दर
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किया है; किन्तु मेरे मतानुसार इससे कुछ पूर्व ज्ञात होता है। क्योंकि देखिये:
महालाक्षणिक आचार्य मम्मट द्वारा प्रणीत काव्य प्रकाश नामक लक्षण ग्रन्थ में मम्मद ने वाच्यातिशायि व्यङ्गया ध्वनि काव्य की जो चर्चा की है, कवि उसी वाच्यातिशायि व्यङ्गथा ध्वनि काव्य के भेदों का उद्धरण सहित लक्षण इस (भावशतक) ग्रन्थ में स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ दे रहा है:
"काव्यप्रकाशे शास्त्रे, ध्वनिरिति संज्ञा निवेदिता येषाम् । वाच्यातिशायि व्यङ्गयान, कवित्वभेदानहं वच्मे ॥२॥"
काव्यप्रकाश जैसे क्लिष्ट लक्षण ग्रन्थ का अध्ययन कर 'ध्वनि' जैसे सूक्ष्म विषय पर लेखिनी चलाने के लिये प्रौढ एवं तलस्पर्शी ज्ञान की आवश्यकता है; जो दीक्षा के' पश्चात् ५-६ वर्ष में पूर्ण नहीं हो सकता। यह ज्ञान कम से कम भी १०-१२ वर्ष के निरन्तर अध्ययन के फलस्वरूप ही हो सकता है और दूसरी बात यह है कि यदि हम सं० १६३५ दीक्षा स्वीकार करें तो यह असंभव सा है कि ५-६ वर्ष के अल्प-दीक्षा पर्याय में 'गणि पद ' प्राप्त हो जाय। अतः वि० १६२८ के आस-पास या १६३० में दीक्षा हुई
नन्दन के "नवयौवन भर संयम संग्रह्यौ जी, सई हथे श्रीजिनचंद" इस उल्लेख के अनुसार दीक्षा के समय इनकी अवस्था कम से कम १५ वर्ष होनी चाहिये । इस अनुमान से दीक्षा--काल वि० १६३५ के लगभग बैठता है।"
[नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५७ अङ्क १, सं० २००६]
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