Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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चैत्र शुक्ला १३ भगवान महावीर जयन्ती के दिन सूर्यपुर (सूरत) गुजरात में निर्मित होकर संपूर्ण हुआ है। लगभग साढ़े चौदह वर्षों की अविधान्त अनवरत साधना के परिणामस्वरूप यह आज बृहत् कोश के रूप में विद्यमान है। इसमें साठ हजार शब्दों का संकलन है। अधिकतर शब्दों की व्याख्या तथा निरुक्ति की गई है। इसमें केवल श्रीमद् की विशिष्ट ज्ञान साधना ही नहीं वरन् श्रीमद् धनचंद्रसूरिजी, श्रीमद् भूपेंद्रसूरिजी और श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी आदि की दीर्घ साधना भी परिलक्षित होती है। अभिधान राजेंद्र का प्रथम भाग १९१३ ई. में और सप्तम भाग १९३४ ईस्वी में रतलाम से प्रकाशित हुआ। सूरिजी का समग्र जीवन और उसका जीवन्त प्रतिनिधि 'अभिधान राजेंद्र विश्वसंस्कृति का अविस्मरणीय मंगलाचरण है।
२. पाइय सदृबुही
यह एक प्रकार से अभिधान राजेंद्र का ही लघुरूप है। इसमें प्रथम वर्णानुक्रम से प्राकृत शब्द, उसका संस्कृत अनुवाद, पश्चात् लिंग निर्देश और हिन्दी में अर्थ है। यह ग्रंथ अभी तक प्रकाशन की राह देख रहा है।
३. श्री कल्पसूत्र बालावबोध
मूलतः कल्पसूत्र श्री भद्रबाहुस्वामी द्वारा १२१६ श्लोकों में लिखा गया है। श्रीसंघ के अत्याग्रह से श्रीमद् ने यह बालावबोध वार्ता लिखी। यह टीका गुजराती भाषा में और देवनागरी लिपि में सचित्र प्रकाशित है। असल में कल्पसूत्र की यह टीका एक ऐसी कृति है जिसे उपन्यास की उत्कंठा के साथ पढ़ा जा सकता है। इसमें वे सारी विशेषताएँ हैं जो एक माता में हो सकती है। श्रीमद् का मातृत्व इसमें उभर-उभर कर अभिव्यक्त हुआ है। कथा के कुछ हिस्सों को छोड़कर यदि हम इसके सिद्धान्त भाग पर ही ध्यान दें तो यह सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक क्रान्ति का बहुत अच्छा आधार बन सकता है।
इस टीका में कई अन्य विषयों के साथ चार तीर्थंकरों के संपूर्ण जीवनवृत्त दिये गये हैं। वे हैं- भगवान महावीर, भगवान पार्श्वनाथ, भगवान नेमिनाथ और भगवान ऋषभदेव। इनके पूर्वभवों, पंच कल्याणकों तथा अन्य जीवन प्रसंगों का बड़ा जीवन्त वर्णन हुआ है।
५. श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी
यह कल्पसूत्र की संस्कृत टीका है। श्रीकल्पसूत्र की इतनी सरल, विस्तृत और रोचक टीका दूसरी नहीं है । 'गद्यं कवीनां निकष' इस टीका में सही अर्थ में सिद्ध हुआ है। ६. अक्षय तृतीया कथा ___ इसमें भगवान ऋषभदेव के वर्षीतप और इक्षुरस के पारणे का वर्णन है। श्रेयांसकुमार ने भगवान को इक्षुरस से पारणा कराया और लोगों को दान धर्म का एवं आहारदान का महत्त्व समझाया। इसका विवेचन प्रस्तुत ग्रंथ में है। ७. खर्परतस्कर प्रबंध
इसमें महाराजा विक्रमादित्य और खर्पर चोर की कथा है। ८. पर्यषणाष्टान्हिका व्याख्यान
श्री क्षमाकल्याणजी वाचक प्रणीत मूल संस्कृत ग्रंथ का यह सरस मारवाड़ी-मालवी-गुजराती मिश्रित भाषांतर है। ६. श्री गच्छाचारपयन्ना-वृत्ति-भाषांतर
इस ग्रंथ के तीन अधिकार हैं-आचार्य स्वरूप, यति स्वरूप और साध्वी स्वरूप । यह ग्रंथ श्रमण जीवन के आचार विचारों का मुख्य रूप से विवेचक है। १०. श्री तत्त्व विवेक ____ इसमें सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का सुन्दर बाल भोग्य भाषा में विवेचन है। ११. श्री देववन्दनमाला
इसमें ज्ञानपंचमी, चौमासी, दीवाली, सिद्धाचल और नवपदजी की देवनंदन विधि का विवेचन है। आराधकों के लिए यह अतीव उपयोगी है। १२. श्री जिनोपदेश मंजरी
इसमें रोचक कथाओं के माध्यम से धर्मतत्व समझाने का प्रयत्न हुआ है। १३. घनसार अघटकुमार चौपाई
इसमें चैत्य भक्तिफल और पुण्य फल का विवेचन है। चैत्यभक्ति की ग्यारह ढालें और पुण्य फल की बारह ढालें हैं। १४. प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका
इसमें प्रश्नोत्तरों के माध्यम से शास्त्रीय प्रमाण देकर धर्मतत्त्व समझाया गया है। १५. सकलैश्वयं स्तोत्र
इसमें पांच महाविदेहों में विहरमान सीमंधरादि बीस तीर्थकरों की स्तवना की गई है।
४. श्री सिद्ध हैम प्राकृत टीका
श्री सिद्धहैम का आठवाँ अध्याय प्राकृत व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी वर्तमान में उपलब्ध टीकाओं में राजेंद्रीय प्राकृत टीका वैशिष्ट्य पूर्ण है। इसके पढ़ने से विद्यार्थियों को मल सूत्र के साथ-साथ संस्कृत श्लोकों से सारी बातों का पर्याप्त ज्ञान हो जाता है। श्लोक में ही सूत्रों की वृत्ति उदाहरण के साथ एवं शब्द प्रयोग की सिद्धि सरल ढंग से की गई है। सामान्य संस्कृतज्ञाता भी इस टीका से प्राकृत का ज्ञान भलीभाँति कर सकता है।
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---- राजेन्द्र-ज्योति
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