Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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एक जीवन गाथा विजय गाथा : विजय यतीन्द्रसूरि
जन्म : वि. सं. १९४०, का. शु. २
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आचार्य विजय यतीन्द्रसूरिजी महाराज महाप्रभावक पुरुष ये वे विश्व पूज्य श्रीमद् विजय राजन्द्रसूरिजी महाराज के अनन्यतम शिष्य थे और उन्हीं के चतुर्थ पट्टधर भी। उन्होंने अपने जीवनकाल में जो शासन सेवा की तथा जो साहित्य निर्माण किया उससे त्रिस्तुतिक समाज का हर श्रावक प्रभावित है। उनका जन्म धोलपुर नगर में हुआ था। उनके पिता श्री बृजलालजी और माता चंपाकुंवर दोनों बड़े धर्मपरायण थे और दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उनका जन्म नाम रामरत्न था। जब रामरत्न की उम्र सात वर्ष की हुई, तब उनके पिता धौलपुर का परित्याग कर भोपाल में बसे। वहां उन्होंने अपने पुत्र रामरत्न की शिक्षा-दीक्षा के लिए प्रयत्न किये। उन्होंने उसे दिगम्बर जैन पाठशाला में भरती करवाया और खुद भी नई-नई बातें सिखाने लगे । केवल दो साल में ही रामरत्न ने पंच मंगल पाठ, तत्वार्थसूत्र, रत्नकरंड श्रावकचार, आलाप पद्धति, द्रव्यसंग्रह, देवधर्म परीक्षा और नित्य स्मरण पाठ का सार्थ अध्ययन कर लिया और इन्हें कंठस्थ भी कर लिया। इसीसे उनकी कुशाग्र बुद्धि का पता चलता है। इसके अलावा उन्होंने भक्तामर मंत्राधिराज, कल्याणमंदिर, विषापहार आदि स्तोत्र भी कंठस्थ कर लिये थे। ऐसे सुयोग्य और विद्वान पुत्र को पाकर श्री बृजलालजी बड़े प्रसन्न थे । अब रामरत्न की उम्र बारह वर्ष की हो गई थी। इस अल्पायु में ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। माता तो पहले ही चल बसी थी। मातापिता की मृत्यु के बाद रामरत्न अपने मामा के घर रहने लगे । मामा-मामी उसे वह प्यार न दे सके जो माता-पिता दे सकते हैं। अतः मामा के साथ अनबन हो जाने के कारण उन्होंने मामा का घर हमेशा के लिए छोड़ दिया और वे नौकरी करके अपना गुजारा करने लगे
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एक बार वे सिंहस्थ मेला देखने उज्जैन गए मेला देखकर उनते श्री मक्षीपार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा की और वहां से आकर महेन्द्रपुर
वी. नि. सं. २५०३
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मुनि नित्यानन्द विजयजी देहावसान वि. सं. २०१७, पौ. शु. ३
नगर में मुकाम किया । महेन्द्रपुर में उस समय श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपने शिष्य मण्डल सहित विराजमान थे । रामरत्न आचार्यश्रीजी के दर्शन से प्रभावित हुए और उन्होंने सूरीजी महाराज के साथ रहने का निश्चय कर लिया। बिहार में भी उनके साथ रहने लगे। उनके संस्कारी हृदय पर विहारकाल में श्रीमद के काण्ड का और उनकी दैनिक दिनचर्या का अद्भुत एवं अमिट प्रभाव पड़ा। वे अब वैराग्य रस में रंग गए। दीक्षा लेने की भावना उनके हृदय में प्रबल हो उठी और एक दिन उन्होंने गुरु महाराज से अपने को शिष्य रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना की । रामरत्न की उम्र अब चौदह वर्ष की हो गई थी। उनकी दृढ़ निष्ठा देखकर गुरु महाराज ने खाचरोद नगर में संवत् १९५४ आषाढ़ कृष्ण २ को उन्हें दीक्षित किया और उनका मुनि यतीन्द्र विजय नाम रखा। मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी सुसंस्कारी एवं सुसंस्कृत तो थे ही फिर भाग्य से ऐसे प्रखर महाविद्वान् एवं शुद्ध साध्वाचार के पालक, महातपस्वी विलक्षण बुद्धिशाली गुरु की निश्रा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। फिर क्या कमी रह सकती है ? बस आप साध्वाचार का पालन करने लगे और स्वाध्याय में रात दिन तल्लीन रह कर अपनी उन्नति करने लगे । दस वर्ष तक आप गुरु महाराज के साथ रहे। इन दस वर्षों में आपने गुरु महाराज के साथ मेवाड़, मारवाड़, मालवा, नेमाड़ और गुजरात आदि प्रदेशों का भ्रमण किया । छोटे-बड़े अनेक प्रसिद्ध अप्रसिद्ध स्थानों में बिहार किया, गुरु महाराज के कर कमलों से की गई अनेक बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठाओं में भाग लिया तथा प्रतिष्ठाएं करवाने की क्षमता प्राप्त की। अनेक ग्राम-नगरों के श्री संघों में पड़े विवाद को गुरु महाराज के तेज प्रताप ने नष्ट होते देखा और शांति स्थापित होते देखी । गुरु महाराज ने अनेक ज्ञान भण्डारों की स्थापना की, उद्यापन करवाए और प्राचीन एवं प्रसिद्ध जिनालयों के जीर्णोद्धार करवाए । गुरुदेव के इस प्रकार के धर्मकार्यों से आपको सर्वतोमुखी अनुभव और ज्ञान प्राप्त हुआ । गुरुदेव के साथ आपने मण्डपाचल श्री
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