Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda

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Page 460
________________ धिक दर्दीली नस को छूने का प्रयत्न किया है। आर्थिक विषमता ने ही हिंसा अन्याय एवं घृणा को अपनी कुंख से जन्म दिया है। समाज के सारे समीकरण आर्थिक असमानता के तीव्र झोंके से ही डगमगाये हुए हैं। परिषद अपने चौथे उद्देश्य की पगडण्डी से अग्रसर होती हुई समाज के अभावग्रस्त तथा अर्थहीन समुदाय को आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर, आत्मवेष्टित तथा आत्मसम्मानी बनाने के लिये संकल्पबद्ध, है। इस दिशा में बैंक की स्थापना, बचत योजनाओं का संचालन उद्योगों तथा व्यापार के लिये ऋण-सुविधा, रोजगारहीन व्यक्तियों को उपलब्ध करवाने आदि जैसे कार्य परिषद की नीति सूची में सम्मिलित हैं। है, यवावर्ग को प्रतिनिधि है। वह हर व्यक्ति जो खुशनुमा सुबह का स्वागत करने के लिये प्रार्थी के स्वर्णपुरुष की देहरी पर खड़ा है तथा सामाजिक बेहबुदी की सुनहरी दोपहरी का इंतजार कर रहा है तथा जो अपनी जिन्दगी को सामाजिक जिदगी से जोड़ता जा रहा है, युवक है। परिषद ऐसे नवयुवकों के जीवन से संबंधित हो गई है और उन्हें कर्त्तव्य पक्ष पर निरन्तर गतिशील रहने के लिये प्रेरणा दे रही है। अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद समाज की जीवन्त समस्याओं का समाधान है “सुलगते सवालों का जवाब है। उसकी स्थापना श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा संवत् २०१६ को एक प्रतिनिधि युवक सम्मेलन में हुई। परम पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने इसे जन्म नाम तथा उद्देश्य प्रदान किये। परिषद अपने चार दिव्य व छः उद्देश्यों के खम्भों पर खड़ी की जाने वाली अट्टालिका बन गई। संगठन धार्मिक शिक्षा प्रसार, समाज सुधार, तथा आर्थिक स्थिति का विकास इन चार उद्देश्यों ने चारों दिशाओं से इस अट्टालिका को सुशोभित कर दिया। संपूर्ण सामाजिक चितन को अपने आप में समाहित कर लिया ___ समाज संगठन का संकेत विघटन तथा क्लेष व विवादों से विकृत हुए वातावरण की शुद्धि करने से है। संगठन के अभाव में समाज समग्र साधनों तथा स्रोतों का उपयुक्त उपयोग करने में अपने आपको असहाय पाती है। संगठित समाज ऐसी ताकत के रूप में उभरता है जो भागीरथी कार्य भी आसानी से सम्पन्न कर अपना रास्ता स्वयं प्रशस्त कर लेता है। सामाजिक संगठन के बिना प्रगति का पहला कदम भी अग्रगामी नहीं बनता है। दूसरे उद्देश्य के रूप में परिषद ने धार्मिक शिक्षा प्रचार को अपने अभियान का महत्वपूर्ण मुद्दा बनाया है। जब तक तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी तथा जैन मनीषियों के पवित्र उद्देश्यों की शिक्षा, छात्रीय जीवन में ही समन्वय प्राप्त नहीं करेगी तब तक नई पीढ़ी के चारित्रिक तथा आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास युक्तियुक्तपूर्ण नहीं हो सकता। पाठशाला संचालन, जैन साहित्य प्रकाशन तथा प्रशिक्षण शिविर आयोजनों के रूप में यह उद्देश्य अपनी सार्थकता प्राप्त कर सकता है। परिषद विचार की तीसरी दिशा को देखने पर वहां क्रांति रंग से अंकित “समाज सुधार" शब्द की तेजस्विता दृश्यमान हो रही है। सामाजिक बुराइयां, कुरीतियां तथा कुरूढ़ियां समयवाद का लाभ प्राप्त कर समाज की जड़ों में सड़ान्ध पैदा करने में कामयाब होती गई। फलतः मृत्युभोज, दहेज, मृत्युरस्म, जन्मदिवस पर अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग, विवाहों में अनावश्यक खर्ची आदि ऐसे चक्र गतिशील हो गये जिनने समाज के मध्यम तथा कमजोर वर्ग को पीस कर रख दिया। परिषद इन सभी को दूर कर, कुरीतियों के संचरण का अपना विश्वस्त मूर्त करना चाहती है। सूरीतियों का परकोटा बनाये जाने पर ही समाज को शुद्ध प्राणवायु प्राप्त हो सकती है। चौथे उद्देश्य के रूप में परिषद ने समाज की सर्वा अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद अपनी । स्थापना का डेढ़ दशक से अधिक समय व्यतीत कर चुकी है। परिषद का जन्म सामाजिक गतिहीनता तथा निर्वाह के वाताबरण में हुआ था। परिषद ने इन्हें दूर करने के लिये कदम बढ़ाये। पहिला अधिवेशन पवित्र तीर्य श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की पुण्यस्थली में श्री सौभाग्यमलजी सेठिया की अध्यक्षता में हुआ। पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज तथा पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज "मधुकर" इसे दिशा निर्देशक के रूप में प्राप्त हुए। श्री सौभाग्यमलजी सेठिया (निम्बाहेड़ा) ही इसके प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित हुए, परिषद का कार्य क्षेत्र मालवा तथा निमाड़ प्रारंभिक रूप में निर्धारित किये गये। केन्द्रीय परिषद की स्थापना के साथ ही ग्राम स्तर तक परिषद की शाखाएं स्थापित होना प्रारम्भ हो गई। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ से जो संगठन-तरंगें उठी उनने पूरे क्षेत्र के युवकों को आडोलित कर दिया। सैकड़ों युवकों ने शाखाओं के माध्यम से सदस्यता ग्रहण करली। दूसरा अधिवेशन रतलाम में हआ जिसमें परिषद का संविधान विधिवत रूप से संशोधित रूप से स्वीकृत किया गया। इसी अधिवेशन में संस्था के प्रतीक ध्वज तथा गीत का निर्धारण कर उन्हें स्वीकृति प्रदान की। उपरान्त खाचरौद में परिषद का अधिवेशन आयोजित व सम्पन्न हुआ। यह अधिवेशन परिषद के लिये काफी प्रेरणादायक बना क्योंकि इस अधिवेशन में नवयुवक शब्द की विस्तृत व्याख्या हुई। परिषद ने नवयुवक शब्द को व्यापक संदर्भो में ग्रहण किया। परिषद अधिवेशनों का काम निरन्तर रहा। परिषद विस्तृत तथा व्यापक बनती गई। मालवा और निमाड़ में जागृति का शंखनाद करने के पश्चात् उसके कदम मरुधर की ओर बढ़े। चौथा अधिवेशन पहली बार राजस्थान में जिला जालौर के एक ग्राम आकोली में हुआ जहां से इसे अखिल भारतीय रूप मिल गया। राजस्थान में भी परिषद की प्रगति के द्वार खुल गये। वर्तमानाचार्य पूज्य श्रीमद् विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज (तब गणाधीश मुनिराज श्री विद्याविजयजी) ने स्वयं अधिवेशन में पधार पर समाज से आव्हान किया कि "समाज परिषद को पुष्ट बनावे" अधिवेशन में मालवा तथा राजस्थान के दूर दूर से प्रतिनिधि सम्मेलन में ४२ .. राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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