Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
View full book text
________________
पालक ने शहर में जाकर बधाई दी कि प्रभु पधारे हैं। राजा भी स्वर्ण रथ में बैठकर बड़ी शान से वहां आया । सामंत तथा सरदार भी बड़े आनन्द से वहां आये । पंडितजन पालकी में बैठ कर शिष्य समूह से शोभित वहां पधारे । नगर के स्त्री पुरुष भी वहां उपस्थित हुए। वषदा में (सभा में) खाली जगह न रही ।
यज्ञ का घोड़ा भी घूमता-घूमता वहां आ पहुंचा । आकर एक कोने में शांति से खड़ा हो गया। उसके मनोहर कान ऊंचे हो गये। मानो वह भी भगवान के उपदेश अमृत का पान कर रहा हो । सभा में तो सभी तरह के मनुष्य होते हैं । घोड़े को इस तरह खड़ा हवा देखकर कुछ लोग हंसे और मजाक में बोले यह पशु क्या समझता होगा? भगवान की वाणी समझना क्या आसान काम है ? बड़े-बड़े ज्ञानी भी नहीं समझ पाते।
गंगा नदी के स्वच्छ प्रवाह की तरह प्रभु की वाणी अमृत धारा-सी बह रही थी । सागर में सरिता समा जाती है वैसे ही प्रभु की वाणी भी नीरव शांति में समा गई सभी उठने की तैयारी में थे कि बड़े गणघर ने भगवंत से पूछा
हे प्रभु ! आपके आज के उपदेश से कौनसा नया प्राणी धर्म को प्राप्त हुवा? प्रश्न बड़ा जिज्ञासा जागृत करने वाला था। सभी अपने नये स्वधर्मी बंधु का नाम जानने को उत्सुक थे। बीसवें तीर्थंकर ने गंभीर स्वर में कहा-आज के मेरे उपदेश से जिस शत्रु राजा के भगवन कहते कहते जरा ठहरे । राजा अपना नाम सुनकर प्रसन्न हो उठा। सभा भी सोचने लगी कि बड़े के भाग्य बड़े । भगवान ने भी इस तरह बड़े को अपना शिष्य बनाया। किंतु भगवान ने अपूर्ण वाक्य को पूर्ण करते हुए कहा-आज के मेरे उपदेश से जिन शत्रु राजा के यज्ञ के घोड़े के सिवाय और किसी को भी धर्म प्राप्त नहीं हुवा । उसे योग्य जीव जानकर ही मैंने ढाई सौ योजन का रास्ता तय किया है। मेरा श्रम सफल हुवा।
प्रभु की वाणी सुनकर सारी सभा ने शर्म महसूस की । राजा को काटो तो भी खून न निकले । सभी सोचने लगे, मनुष्य से भी पश अधिक अच्छा है। अरे ? हमारा मनष्यत्व का अभिमान ही व्यर्थ है। सचमच पशु तो पश् ही है पर हम तो पशुता धारण कर बैठे हैं। एक दूसरे को कष्ट देते हैं । एक दूसरे की चोरी करते हैं और एक दूसरे को मारते हैं। वे तो जन्म से पशु हैं पर हम तो आचरण से पशु बने हुए है।
भृगु कच्छ के राजा ने भरी हुई पर्षदा में खड़े होकर कहाहे प्रभु ! धन्य आपकी वाणी ! मनुष्य से भी पशु का हृदय इतना
नरम । उस हृदय की आपको इतनी चिंता ? इसके लिये आपने कैसा पंथ काटा ? यह घोड़ा आज से मेरा स्वधर्मी बंधु बना । इस मूक प्राणी का यज्ञ में होमकर में स्वर्ग देना चाहता था । मैं कैसी मूर्खता कर रहा था ? पर आज आपके उपदेश से हम सभी समझ गये कि जीवन सबको समान रूप से प्रिय है। धर्म में मानव तथा पशु का भेद नहीं है। हमारे पाप दूसरों की हत्या से मिथ्या नहीं होंगे । सच्चा यज्ञ तो आत्मा का होता है, इसमें काम-क्रोध रूपी पशुओं का हवन करे तभी स्वर्ग मिल सकता है। आज तक यह धोड़ा यज्ञ के लिए था, आज से मैं हमेशा के लिये बंधन मुक्त करता हूं।
घोड़ा भी कैसा है । खड़ा खड़ा मानो वचनामृत पी रहा है । मूक प्राणी को वांचा नहीं है पर आंखो की भी एक भाषा तो है न ? उस भाषा में वह बहुत कुछ कह रहा है।
बीसवें तीर्थकर तो आषाढ़ के भरे हुए बादल की तरह बरस कर चले गये । वह घोड़ा भी बंधन मुक्त हो गया। पर वह तो अस्तबल छोड़कर कहीं न गया ।
वह अब हरे खेत या जंगलों में नहीं भटकता, गंदे पानी में मुंह नहीं डालता, अपने घास चारे में से भी अशक्त और पंगु पशुओं को खिलाता है क्या ही उसकी शांति है और कहते हैं । "वाह भाई बड़ा धर्मी घोड़ा है यह तो।" ___अपनी जाति के और अपने सभी काम खुद करता है। सुख
और दुःख में प्रीति और विरोध में मन को समान रखता है। छोटे बच्चे भी उसके पैरों के पास निर्भय होकर खेलते हैं भगवान के मरत को उनको कल्याण करने वाली वाणी को वह हमेशा याद करता है तथा जहां पर पर्षदा भरी गई थी वहां जाकर रोज प्रदिक्षणा देता है।
आयु पूर्ण होने पर वह शांति से अपनी देह छोड़ता है । उस स्थान पर नगर जन तीर्थ की रचना करते है वह स्थान आज भी लोगों में उच्च बोधि तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है ।
इस तीर्थ की यात्रा को आने वाले सभी यात्री यही भावना करते हैं-यह पशु तथा यह मनुष्य, ऐसे संवेग तथा पूंछवाले भेद ठीक नहीं है जन्म से नहीं पर आचरण से ही मनुष्य मनुष्य बन सकता है। धर्म में ऊँच-नीच का भेद नहीं है, पर्व उसी का है जो पालन करे, धर्म उसी का है जो धारण करे ।
राजेन्द्र-ज्योति
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org