Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
View full book text
________________
यज्ञ का घोड़ा
मनुष्य के अहंकार-अभियान की कही सीमा है ? मानो सारी दुनिया के जीवों में वही बुद्धिमान है धर्म कर्म में मानो वही समझता है ज्ञान व ध्यान का मानो वही स्वामी है ? पाप पुण्य के विवेचन में वही पारंगत है।
हमें शीघ्र भृगुच्छ (मोच) पहुंचना है। भगवन ! ऐसा क्या आवश्यक है ?
भंवरलाल नान्देचा
एक दिन बीसवें तीर्थंकर (मुनिसुव्रतस्वामी) ने अपने बड़े गण धराशिष्य ने मानो मनुष्य का यह घमण्ड उतारने के लिए ही न कहा हो
में जंगल हैं । कई गहन वन हैं। आती हैं। गणधर देव ने कहा ।
भृगुकक्छ क्या यहीं है ? ठीक ढाई सौ योजन दूर है । बीच समुद्र समान सरिताएं बीच में
बीसवें तीर्थंकर ने कहा- इन सबको मार करके भृगु कच्छ पहुंचना है एक भाग्यवार जीव को प्रतिबोध देना है । बहुत जरूरी है ।
स्वयं भगवान जिसके कल्याण के लिये इतनी चिंता करते हैं उस भाग्यवान व्यक्ति का नाम क्या है ? क्या वह मनुष्य है या देव है ? प्रभो ! उसके तो भाग्य खिल गये । बड़े गणधर ने पूछा । प्रभु ने कहा- वह न मनुष्य है न देव है । वह तो तिर्यंच प्राणी है ।
जानवर । और उसे प्रतिबोध देने के लिए प्रभु इतना लंबा प्रवास करने को तैयार हुए हैं। गणधर के आश्चर्य की सीमा न रही।
Jain Education International
जो बांधे, उसी की तलवार, जो धारण करे, उसी का धर्म, इतना कहकर प्रभु ने अपने शिष्य समूह के साथ विहार प्रारंभ किया । ढाईसो योजन का रास्ता बरसती हुई आग में या जोर से चलती हुई हवा में नंगे पैर या खुले सिर प्रभु ने वह रास्ता तय
बी. नि. सं. २५०३
1
किया और कच्छ आ पहुंचे वहां कोरंट वन में ठहरे और धर्मसभा (समवसरण हुई।
भृगुकच्छ बड़ा नगर है। राजा का नाम जितशत्रु है । इस बड़े नगर के बड़े राजा ने स्वर्गवासी देवों का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये एक बड़ा यज्ञ किया है। उसने दूर-दूर के देशों से वेद और वेदों के जानकार कई ब्राह्मणों को निमंत्रित किया है। सात पवित्र नदियों से पानी मंगवाया है । और कितना ही थी, अन्न तथा पकवान तैयार करवाया है। भेड़ों और बकरों की संख्या है अगणित । ये सब यज्ञ में होम के लिये हैं, अग्नि की गगन गामिनी ज्वालाएं प्रकट हो चुकी थी ।
अग्नि देवताओं का मुख कहा जाता है। सभी यह मानते थे कि इस अग्निमुख के द्वारा देवता अपनी बलि लेते हैं और बदले में बलि देने वाले की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं।
ऐसे बड़े यज्ञ में जिसे अश्वमेघ यज्ञ कहते हैं अंतिम दिन सर्वांग सुन्दर घोड़ा भी अग्नि में होमा जाता है । यह घोड़ा यज्ञ का अश्व कहा जाता है। इस घोड़े को स्नान कराकर खूब श्रृंगार सजाये जाते हैं उसे स्वर्ण के गहने तथा जरी के वस्त्र पहनाये जाते हैं। और उसे पुष्पहार से लादकर खुला छोड़ दिया जाता है।
वह घोड़ा मनमानी जगह पर घूमता है जहां उसे जाना हो वहां वह जाता है और जहां उसे चरना हो वहां चरता है चाहे वह गन्ने का खेत में, चाहे अनाज के भरे खेत में घूमे। चाहे वह किसी चरागाह में चरता रहे। नगर में गांव में या जंगल में जहां उसे घूमना हो वहां वह घूमता है और चरता है उसे कोई पकड़ता नहीं, रोकता टोकता नहीं अथवा निकालता भी नहीं । जो उसे पकड़ता है, निकाल देता है उसे राजा दण्डित करता है और उस घोड़े के साथ राजा की सेना भी रहती है ।
कोरंटवन में यज्ञ का वह घोड़ा घूम रहा था वहीं बीसवें तीर्थकर ने अपनी धर्म सभा में उपदेश देना प्रारंभ किया । वन
For Private & Personal Use Only
७३
www.jainelibrary.org