Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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हुई है, उसके विभिन्न अंशों का यहां आलेखन किया जाना भी प्रासंगिक होगा--
अगर प्रबल शक्ति प्राप्त करना है तो गम्भीरता और धीरता से अपने पैरों पर खड़े रहना सीबो, दूसरों के आश्रय की राह न देखो । सम्पूर्ण शक्तियों का सम्बन्ध दृढ़ता पर निर्भर है, यदि बार-बार भी असफलता मिले तो भी निराश नहीं होना चाहिये। अपने पक्ष से विचलित होकर आय की अपेक्षा रखना कर्तव्यनिष्ठ पुरुषों के लिए शोभाजनक नहीं है। जब तक आत्मा निर्भय न हो, अपनी शक्ति को न समझ ले, तकलीफों को न सह ले और सत्यमार्ग पर अटल न रहे तब तक वह किसी जगह आराम नहीं पा सकती और न कोई कार्य कर सकती।
-पू. आचार्य श्रीमद् यतीन्द्र सूरि
(अंक जनवरी, १९६०)
कर्म का फल अटल है। 'कडाण कम्माण ण मुक्ख अत्थि' किये कर्मों को भोगे बिना छुटकारा असम्भव है। खून किया तो फांसी ही होगी । सामायिक करने से धैर्य और सहन शक्ति मिलेगी परन्तु फांसी नहीं बच सकती। निराश्रित कर्म नहीं हुए तो मूली का सिंहासन और आग का जल भी हो सकता है पर सीता तथा सुदर्शन को मोक्ष नहीं मिला । मोक्ष तो गज सुकुमार को ही प्राप्त हुआ। सिर पर रखी हुई आग फूल नहीं बनी। (संपादकीय)
-सूरजचन्द डांगी 'सत्यप्रेमी'
(अंक जुलाई, १९६१)
प्रेम तो वहीं होता है जहां राग नहीं होता। ममता मिटी कि समता आई। आत्म-निरीक्षण कर बताएं कि प्रतिवर्ष आ कर मैत्री का सन्देश देने वाले पर्दूषण पर्व की सभी आराधना कब हो सकेगी?
-शांतिदास डांगी 'सत्यदास'
(अंक सितम्बर, १९५७)
महाविभूति शासन-प्रभावक, स्व-पर समयज्ञ जैन-जनेतर सभी विषयों के मर्मज्ञ जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की अमर आत्मा इस पार्थिव शरीर को छोड़ देने पर भी विश्व में एक अनोखी देन जो दे चुकी है, वह संसार के लिये चिरस्मरणीय रहेगी। आपका निर्मल यश इतिहास के पृष्ठों पर सदा उज्ज्वल सितारों की भांति चमकता रहेगा। आपका जीवन अनेक शासन प्रभावना के कार्यों से ओतप्रोत रहा। (स्व. गुरुदेव श्री के स्वर्गवास पर लिखित श्रद्धांजलि से)
-पुनि पाल्याण विजय (स्व.)
(अंह फरवरी, १९६१)
जो आत्मा अपने आत्मबल पर मुस्ताक बन कर कर्म-सत्ता के सामने अहिंसा, सत्य, अस्तेयादि सात्विक आयुधों से सज्ज होकर क्षमा रूपी तलवार लेकर साधना रूप मैदान में कर्मसत्ता से संग्राम कर उसके दुर्भेद्य दुर्ग को भेद कर विजयी बन कर मोहराज और उसके सैन्य को भगा देती है, वही आत्मा आत्म-विकास के चरम चरण को प्राप्त कर सकती है और वही आत्मा वीर है, महावीर है।
-मुनि देवेन्द्र विजय
(अंक नवम्बर, १९५७) महापुरुष जब जन्म लेते हैं तो उनके साथ ही उनकी जीवन कहानी का भी जन्म होता है। उनका जीवन यहां विकास पाता है और जब वह संसार यात्रा पूरी कर परलोक गमन करते हैं तो अपनी कहानी संसार में छोड़ जाते हैं, जो जनजीवन के मन और मस्तिष्क में अपना घर कर लेती है। उनकी जीवन कहानी से दूसरों को मार्गदर्शन होता है।
(संपादकीय) -कुन्दनमल डांगी
(अंक मई, १९५७) __जीवन में अमृत है और महारसायन स्वरूप परम उदार भावों के संगम से महदानन्द की अनुभूति ही, उसका परिणाम है। उस अनुभूति का आदर्श प्रदर्शन ही नहीं किंतु आस्वाद का आनन्द प्राप्त करने के लिए कह रहे थे वे उपास्य अपने निकटतम उपासकों की स्थिति ऐसी है अभी, तमसाकृत अभी सारा स्थल हो जावेगा और इसलिए कटिबद्ध हो जाओ एवं 'दीपक में भर लो तैल ।'
-मुनि जयन्तविजय 'मधुकर (अंक सितम्बर, १९६१)
शाश्वत धर्म पाक्षिक, मासिक विभिन्न रूपों में आत्मा में सबसे बड़ी मलीनता है अज्ञान की । आत्मा के स्वरूप को भूल जाना और अनात्मी भावों या पदार्थों को अपना याने आत्मा मान लेना ही मिथ्यात्व या अज्ञान है। जो पदार्थ अपने नहीं हैं, उन पौद्गलिक पदार्थों को अपना मान लेने से ही सारी गड़बड़ हो जाती है। जैसे धन, जन, शरीर आदि अपने नहीं हैं।
-अगरचन्द नाहटा (अंक जून १९५९)
-- राष्ट्रीय जीवन की सफलता प्रामाणिकता एवं उन्नत चरित्र पर निर्भर है। देश में हिंसक प्रवृत्तियों व गतिविधियों के कारण
राजेन्द्र-ज्योति
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