Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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बेताल आदि से भी डरवाने का प्रयत्न किया । परन्तु वह घोर तपस्या में अडिग रहे । अतः बाद में कमठ ने लज्जित होकर क्षमा याचना की । इस प्रकार की अन्य प्रतिमायें प्रायः दुलर्भ हैं। बिहार से मिली एक ऐसी मूर्ति विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट संग्रहालय लंदन तथा अथूणा से मिली, अजमेर संग्रहालय में प्रदर्शित है । बादामी तथा अलोरा में भी ऐसी अन्य मूर्तियां अभी भी देखी जा सकती हैं।
क्लीवलैण्ड संग्रहालय की इस आदमकद मूर्ति (नं० ६१, ४१९) में नग्न पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं । इसमें इनके शीर्ष पर बने बड़े सर्प फणों के ऊपर गन्धर्व युग्म, शंख वादक व मालाधारी दिव्य बने हैं। मूर्ति के दोनों ओर धरणेन्द्र-नाग की रानियों अर्थात् नागिनों के चित्रण हैं जब कि जिनके शीर्ष के ऊपर स्वयं वह फण फैलाए कमठ द्वारा की जाने वाली वर्षा तथा पत्थरों से तीर्थंकर की रक्षा कर रहा है। तीर्थंकर की मूर्ति के समीप चंवरधारी सेवक तथा चार अन्य नागियों का सुन्दर अंकन किया गया है।
श्री जैसन बी. ग्रोसमेन के संग्रह में बलए पत्थर का बना एक बड़ा सुन्दर जिन मूर्ति का सिर है। इसमें उनके घुघराले केशों को बड़ी सुन्दरता से दर्शाया गया है । प्रस्तुत शीर्ष में माथे पर मंगलकारी चिह्न बना है, परन्तु अन्य विशेषताओं के अभाव में किसी विशेष तीर्थकर मूर्ति से इसका संबंध बताना कठिन कार्य है । यह शीर्ष राजस्थान की लगभग १० वीं शती ई. कला का उदाहरण माना जा सकता है।
उपर्युक्त शीर्ष की लगभग समकालीन एक तीर्थकर प्रस्तर प्रतिमा श्रीमती एवं श्री हेरी लेनार्ट के संग्रह में भी है। इसमें तीर्थकर ध्यान मुद्रा में एक सिंहासन पर विराजमान हैं। मूर्ति के वक्ष पर श्री वत्स चिह्न बना है परन्तु उनका लाक्षन खण्डित हो जाने के कारण उनकी ठीक पहचान करना कठिन है । मूर्ति के बांई ओर एक चंवर पकड़े सेवक खड़ा है। जबकि दाहिनी ओर का सेवक खण्डित है। प्रस्तुत मूर्ति का बांई ओर का ऊपरी भाग भी टूट गया है और दाहिनी और एक मालाधारी गन्धर्व तथा गज ही शेष बचा है। लाल बलुए पत्थर की यह मूर्ति सम्भवतः मध्यप्रदेश में लगभग ९ वीं शती ई. में बनी होगी।
बोस्टन के कला संग्रहालय में उत्तरी भारत में १० वीं सदी ई. में निर्मित एक तीर्थकर मूर्ति का ऊपरी भाग प्रदर्शित है (नं. ५५५११) । इस दो फीट व तीन इंच ऊंची मूर्ति को स्व. डॉ. आनन्द कुमार स्वामी ने भ्रांति से महावीर की प्रतिमा बताया है जो उचित नहीं है। इसमें उनके केश ऊपर की ओर बंधे हैं तथा जटा दोनों ओर कन्धों पर पड़ी हैं जिससे स्पष्ट है कि यह आदिनाथ की मूर्ति है। मूर्ति पर्याप्त रूप से खण्डित होने पर भी कला का अनुपम उदाहरण है । मूर्ति के शीर्ष के दोनों ओर बादलों में उड़ते हुए मालाधारी गन्धर्व बने हैं और सबसे ऊपर त्रिछत्र के ऊपर एक दिव्य वादक मृदंग बजाकर आदिनाथ की कैवल्य प्राप्ति पर हर्ष ध्वनि करता प्रदर्शित किया गया है।
इसी संग्रहालय में मैसूर से प्राप्त जिन की ९ वीं १० वीं शती ई. की कांस्य प्रतिमा भी है, जिसमें उनको ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है। दक्षिण भारत की अन्य जैन प्रतिमाओं की भांति इस मूर्ति के वक्ष पर श्री वत्स चिह्न का अभाव है । मूति सुडौल है एवं कला की दृष्टि से भी सुन्दर है । इसी से साम्य रखती तीर्थंकर की ध्यान मुद्रा में एक अन्य परन्तु पाषाण मूर्ति जिसे विनिमय में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली से प्राप्त किया गया था, फिलाडेल्फिया म्यूजियम आफ आर्ट के भारतीय कक्ष में सामने ही प्रदर्शित किया गया है। इसमें भी लांक्षन नहीं मिलता है यह चौल-कालीन ११ वीं शती ई. की कृति है।
मध्यकाल में राजस्थान और गुजरात में जैन धर्म का काफी प्रावन्य होने के कारण वहां पाषाण एवं धातु को अगिनत जैन मूर्तियों का भी निर्माण हुआ। ऐसी मूर्तियां अनेक संग्रहालयों के अतिरिक्त अभी भी जैन मन्दिरों में पूजा हेतु प्रतिस्थापित हैं। अमेरिका की अंजलि गैलरी के संग्रह में वि. सं. ११११ व १०५४ ई. की एक कांस्य प्रतिमा में तीर्थकार को एक ऊंचे सिंहासन पर ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है। उनके दोनों ओर एक-एक चंवरधारी सेवक खड़ा है तथा सिंहासन के दोनों ओर यक्ष एवं यक्षी बैठे हैं। सामने पीठिका पर मध्य में धर्म चक्र को घेरे मृग एवं दाहिनी ओर चार व बांई ओर पांच ग्रहों का अंकन है। लांक्षन अस्पष्ट है। ऊपरी भाग में मालाधारी गन्धर्व तथा निक्षत्र पर शंख बजाते हुए एक दिव्य गायक बना है । तीर्थकर की आंखें, श्री वत्स, व सिंहासन के कुछ भाग पर चांदी जड़ी हुई है।
पश्चिमी भारत से प्राप्त वि.सं. १५०८ (१४५१ ई.) की एक मूर्ति श्री और श्रीमती बोव विल्लोधबाई के संग्रह में भी है। परन्तु इसमें भी लांक्षन का अभाव होने से मूर्ति की ठीक पहचान कर पाना कठिन है। इस पंचतीर्थी मूर्ति में मूल प्रतिमा के दोनों ओर एक-एक तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रा में व उनके ऊपर एक अन्य तीर्थकर ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है। अन्य बातें लगभग उपर्युक्त वणित मूर्ति जैसी ही हैं। ऐसी ही एक अन्य जिन पंचतीर्थी श्री जेसन बी. ग्रोसमेन के पास भी है। मति के पीछे उत्कीर्ण लेख से विदित होता है कि इसका निर्माण वि.सं. १५१६ (१४५९ ई.) खुदा हुआ है इसमें भी आंखें एवं श्री वत्स आदि के स्थान पर चांदी का प्रयोग हुआ है।
लास एंजीलिम काउन्टी म्युजियम आफ आर्ट, में भगवान विमलनाथ की पंचतार्थो प्रर्दाशत है। मूर्ति के पृष्ठ भाग पर तीर्थंकर का नाम विमलनाथ तथा उसका निर्माण काल वि.सं. १५८७ (१५३० ई.) खुदा हुआ है । विमलनाथ का लांक्षन शुकर उनके आसन के नीचे बना है तथा सिंहासन के दोनों ओर एक-एक खड़े तीर्थकर के अतिरिका एक-एक चंवरधारी सेवक भी बना है और उनके ऊपर एक-एक अन्य तार्थ कर ध्यान मुद्रा में निर्मित है। सामने पोठिका पर शांति-देवी के दोनों और नवग्रहों का चित्रण है।
अमेरीका में भारत से प्राप्त कुछ जैन देवी अम्बिका की प्रतिमाएं भी पहुंच गई हैं। ऐसी मूर्तियों में संभवतः सबसे प्राचीन प्रतिमा स्टेनदहल गैलरी में सुरक्षित है । उड़ीसा से प्राप्त लगभग
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राजेन्द्र-ज्योति
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