Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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२०. वर्ग विशेष की संस्कृति के साथ-साथ विशाल संस्कृति का
सुहावनी अभिव्यंजनापूर्वक गतिशील वर्णन । २१. भारतीय गौरव और वैभव की अनुपम अभिव्यक्ति आदि ।
अभिप्राय यह है कि जैन कथा साहित्य की अपनी विशेषताएंमौलिकताएं हैं । इसलिये विश्व साहित्य के विशाल भण्डार की बहुमूल्य निधि मानी जाती है । जैन कथाकारों की उदारता
जैन कथाकारों की यह उदारता रही है कि किसी भी क्षेत्र से क्या स्रोत ग्रहण किये हों, कोई भी कथानक हो, कोई और कैसे भी पात्र हो या कैसी भी घटना क्रम या स्थिति का चित्रण हो वे अपनी कहानी को एक रोचक एवं वस्तुपरक ढंग से कहते चलते हैं।
जैन धर्म का प्रचार और प्रसार करने के लिये जैनाचार्यों ने अपूर्व प्रेरणाप्रद और प्रांजल नैतिक कथाओं की परम्पराओं का अनुसरण किया है। वे प्रचार-प्रसार के लिये कथाओं को सबसे सुलभ और प्रभावशाली साधन मानते हैं। उनकी कथाएं दैनिक जीवन की सरल से सरल भाषा में होती हैं। इसलिये उन्होंने अपने समय को प्रचलित लोक भाषाओं में यह गद्य या पद्य अथवा दोनों के संयुक्त रूप द्वारा कथा कला को चरम विकास की सीमा तक पहुंचाया।
जैन कथाकारों की कथा करने की प्रणाली अन्यों की अपेक्षा विशेषतापूर्ण है । वे क्या के प्रारम्भ से अपने प्रसिद्ध धर्म वाक्य या पदांश द्वारा मंगलाचरण करके फिर बाद में क्या करना प्रारम्भ कर के कथा के प्रारम्भिक भाग में प्रमुख पात्र अथवा पात्रों के नाम, उनके निवास स्थान का उल्लेख नियमित रूप से होता है साथ ही पुण्यवान राजा-रानी शासक के नाम का भी उल्लेख कर दिया जाता है। उनकी शासन व्यवस्था की प्रशंसा करके क्षेत्र की भौगोलिक रमणीयता, वहां के निवासियों की वृत्ति का भी उल्लेख कर दिया जाता है। कथा के पात्र वर्ण्य विषय में ऐसा तालमेल बैठाया जाता है कि श्रोता या पाठक अपने जीवन को भी उनमें झाकने लगते हैं। वह इतना तन्मय हो जाता है कि यह कथा मेरे जीवन की ही कहानी है। कथा के अंत में श्रोताओं या पाठकों को सन्मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं । कथा पात्र पर विशेष आदर्श, भक्ति, तपस्या आदि का प्रभाव प्रकट हो जाने से वह संसार से छुटकारा प्राप्त करने का उपाय पूछता है, प्रत्युत्तर में जैन धर्म के मुख्य-मुख्य सिद्धान्तों को या प्रसंगोपयोगी किसी एक सिद्धान्त के प्ररूपण के प्रसंग में बताया जाता है कि पूर्व कृत कर्मों के फलस्वरूप ही वह सब घटना बनी, सुख-दुःख की प्राप्ति हई है और अपने कथन के उदाहरण में संक्षिप्त रूप से कहानी के पात्रों के जीवन में घटित घटनाओं के वर्णन द्वारा उसे स्पष्टतया समझाते हैं जिससे वह कुत्सित मार्ग को छोड़कर मोक्ष मार्ग का पथिक बन जाता है। सांसारिक बंधनों से नाता छोड़ आत्मा से नाता जोड़ लेता है, इस प्रकार कथा का अन्त उपदेशात्मक पंक्तियों के साथ सुखद दृष्टिगोचर होता है । जैन कथाओं में लोक संस्कृति और समाज
हमारे देश की लोक संस्कृति धर्म परायण है और माननीय आदर्शों को निरन्तर अपनाती रहती है । उसमें विरक्ति, करुणा, उदारता,
सेवा, त्याग, अहिंसा आदि के ऐसे स्वर गूंज रहे हैं जो परिवर्तन की मांग मुखर होने पर भी कोई उनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिये स्वीकृति नहीं देता है। उनमें मानवता की रक्षा के दर्शन करता है । इसलिये यह मानता है कि संस्कृति के मौलिक उपादानों में फेरबदल करना अपने अस्तित्व का नकारा करना है।
जैन कथाओं में लोक संस्कृति का यथार्थ रूप में चित्रण मिलता है । वस्तुतः लोक संस्कृति को अपनाने के कारण ही ये कथायें लोकप्रिय बनी हैं। संस्कृति और अन्तर बाह्य जीवन की अभिव्यक्ति है जिसमें हमारे जीवन के सभी भौतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक मूल्य उसमें समाहित हो जाते हैं। समाज निर्माण के मूल से कुछ नैतिक विश्वास, संस्कार, नियम और क्रियाकलाप होते हैं, जिनको उस समुदाय में रहने वाले आबाल-वृद्ध सभी व्यक्ति की स्वीकृति प्राप्त होती है यानी उन्हें सभी अंगीकार करते हैं । यद्यपि लोक संस्कृति का कोई पंक्तिबद्ध लेखा नहीं होता है वह न किन्हीं नियमउपनियम से भी बंधी रहती है । सामयिक आचार-विचार सभ्यता से कुछ रूपान्तरण हुआ अवश्य प्रतीत होता है लेकिन व्यक्ति की मानसिक धरोहर और विश्वास होने के कारण वह लोक मानव की युगों से पाढ़ी दर पीढ़ी विरासत के रूप में मिलती रहती है। परिवर्तन होते जाते हैं पर उसके मौलिक रूप में कुछ विकार नहीं आता है। उसमें स्थायित्व रहता है।
जैन कथाओं के आत्म विकासोन्मुखी होने के कारण यद्यपि उनका लक्ष्य सामाजिक रहन-सहन अथवा राजनीतिक वातावरण अंकित करना नहीं रखा है। फिर भी उनमें ऐसे अनेक संवेदनशील आख्यान उपलब्ध हैं जिनमें ऐतिहासिक तथ्यों की प्रतीति होने के साथ पाठक तत्कालीन सामाजिक रहन-सहन, आचार-विचार, व्यापार-व्यवहार का यथार्थ एवं सविस्तार परिचय प्राप्त कर लेता है। जैसे कि अर्थोपार्जन और आजीविका के अनेक साधन हैं फिर भी प्राचीनकाल से व्यापार और खेती की मुख्यता का उल्लेख है, नौकरी के प्रति जनता का आकर्षण नहीं था । व्यापार के निमित्त एक दूसरे प्रान्त में ही नहीं समुद्रपार सुदूर देशों में पहुंचते थे । पारस्परिक वस्तुओं का विनिमय करना व्यापार का आधार था । धन कमाकर दान में उसका उपयोग करना एवं धार्मिक कार्यों में जी खोलकर व्यय करना प्रत्येक व्यक्ति अपना कर्तब्य समझते थे ।
समाज व्यवस्था सुगठित थी और एक दूसरे को सहायता देना, गुरुजनों का आदर-सत्कार करना एक साधारण सी बात थी। लोक जीवन विशेष समृद्ध और सुखमय था । कृषि से पर्याप्त आय होती थी तथा खाद्य पदार्थ अल्प मूल्य में सुलभता से प्राप्त हो जाते थे। सर्वत्र समृद्धि परिलक्षित होती थी। स्त्री और पुरुषों में आभूषण पहनने का आम रिवाज था । दूध, दही, घी, विविध दालें, सुगंधित चावल, मिष्ठान्न आदि भोजन के प्रमुख अंग थे । मनोविनोदार्थ कई तरह के खेल खेले जाते थे। सामाजिक त्यौहारों एवं विशिष्ठ पर्वो को बड़े उल्लासपूर्वक मनाया जाता था।
राज्य व्यवस्था कठोर थी । राजा अपराधी को कठोर दण्ड देते थे यहां तक कि चोरी के अपराध में सूली की सजा दे दी जाती थी।
वी.नि.सं. २५०३
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