Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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जैनधर्म
जैन धर्म अति प्राचीन और शाश्वत धर्म है। सच्चा जैन वही है जो जैन आचार विचार का नियमपूर्वक पालन करता है । आज हम अधिकांश नाम से जैन है। धार्मिक प्रवृत्तियों की ओर हमारा झुकाव नहीं है और आपस में टकराने में ही हम अपना गौरव अनुभव करते हैं। यह सुखद नहीं है और हमें इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिये ।
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यशवंतकुमार नांदेचा
जैन धर्मानुसार इस अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर हुए हैं जिनमें प्रथम ऋषभदेव व अंतिम महावीर है। वर्तमान विद्वान नेमीनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर को ऐतिहासिक पुरुष मानने लगे हैं और उनकी दृष्टि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तक जाने लगी है । मोहनजोदड़ो एवं हरप्पा से प्राप्त मुद्राओं में ऋषभदेव कार्योत्सर्ग मुद्रा में अंकित हैं इससे भी जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध होती है। रूसी समाज शास्त्री श्रीमती ग्रसेवा ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जैन धर्म वेदों की रचना से पूर्व विद्यमान था क्योंकि वेदों में जैन तीर्थंकर का विवरण मिलता है। जैन धर्म परम्परावादी धर्म न होकर पुरुषार्थ प्रधान मूलक धर्म है । राष्ट्रीय विकास में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे वर्तमान में जैन धर्म जिंदा है। जैन इतिहास में तिरसठ सवाका पुरुष हुए। जिनमें २४ तीर्थंकर भी हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को उसके उषाकाल में ही एक क्रमबद्ध रूप देने की कोशिश की । तीर्थंकर से पूर्व कुलकरों का वर्णन है । नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव भारतीय लोक जीवन में इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि जहां एक ओर उनकी अनेक प्रतिमाएं प्राप्त हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें लेकर कई प्रामाणिक प्रागैतिहासिक सामग्री भी मिलती है। हिन्दी के
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भक्त कवि महाकवि सूरदास ने भी सूर सागर में ऋषभदेव का वर्णन किया है। ईसा की चौथी से बारहवीं शताब्दी के मध्य दक्षिण भारत पर जैन धर्म का व्यापक प्रभाव एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य है कदेन, गंग, राष्ट्रकूट, चालुक्य होयसल राजवंश जैन थे 1
जैन धर्म हमें बतलाता है कि हिंसा मत करो, अहिंसा परमोधर्म का पालन करो। जैन अहिंसा की परिधि में केवल मानव ही नहीं अपितु समस्त प्राणिमात्र आता है। "जियो और जीने दो' का अहिंसा का सिद्धान्त अत्यन्त ही सारगर्भित है ।
जैन धर्म की अन्य विशेषता यह है कि इसने सभी युगों में उदारता और धीरज के साथ तथ्यों का परितोलन किया और खण्डन- मण्डन की बेकार शैली से हटकर बिना किसी धर्म की अवहेलना किये अनेकांत की उदार चिंतन पद्धति के माध्यम से सर्वधर्म समभाव को साकार करने का प्रयत्न किया । वस्तुतः सच्चाई को खोज निकालने का यह आध्यात्मिक संगणक है ।
जैन धर्म ने अंधविश्वासी और रूढ़ियों को स्वप्न में भी स्वीकार नहीं किया। इसलिये वह चिरनूतन नवा हुवा है। वह नर से नारायण बनने की क्षमता में पूरी तरह विश्वास करता है । वह हर प्राणी को अपने भाग्य का विधाता मानता है । कोई भी अपने पुरुषार्थं द्वारा परामात्म को प्राप्त कर सकता है ।
जैन धर्म में भीरुता को कोई स्थान नहीं है । यहां खुले आसमान के नीचे किया जाने वाला स्वस्थ चितन है। वहां न कोई वैचारिक दबाव न कोई पूर्वाग्रह। वहां तो बात को देखो,
राजेन्द्र-ज्योति
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