Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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अर्थ जोड़ना, मिलाना और संयोग करना है । उपनिषदों में भी जो उपनिषद् बहुत ही प्राचीन हैं, उनमें भी आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द व्यवहृत नहीं हुआ है, किन्तु उत्तरकालीन कठोपनिषद,' श्वेताम्बर उपनिषद आदि में आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है । गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने योग का खासा अच्छा निरूपण किया है। योग वासिष्ठ ने भी योग पर विस्तार से चर्चा की है । ब्रह्मसूत्र में भी योग पर खण्डन और मण्डन की दृष्टि से चिन्तन किया, किन्तु महर्षि पातंजलि ने योग पर जितना व्यवस्थित रूप से लिखा उतना व्यवस्थित रूप से अन्य वैदिक विद्वान् नहीं लिख सके । वह बहुत ही स्पष्ट तथा सरल है, निष्पक्ष भाव से लिखा हुआ है । प्रारंभ से प्रान्त तक की साधना का एक साथ संकलन-आकलन है । पातंजल योगसूत्र की तीन विशेषताएँ हैं--प्रथम, वह ग्रंथ बहुत ही संक्षेप में लिखा गया है, दूसरी विशेषता, विषय की पूर्ण स्पष्टता है और तीसरी विशेषता अनुभव की प्रधानता है। प्रस्तुत ग्रंथ चार पाद में विभक्त है। प्रथम पाद का नाम समाधि है, द्वितीय का नाम साधन है, तृतीय का नाम विभूति है और चतुर्थ का नाम कैवल्यपाद है। प्रथम पाद में मुख्य रूप से योग का स्वरूप, उसके साधन तथा चित्त को स्थिर बनाने के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद में क्रियायोग, योग के आठ अंग, उनका फल और हेय, हेय-हेतु, हान और हानोपाय इन चतुर्पूह का वर्णन है । तृतीय पाद में योग की विभूतियों का विश्लेषण है। चतुर्थपाद में परिणामवाद का स्थापन, विज्ञानवाद का निराकरण और कैवल्य अवस्था के स्वरूप का चित्रण है।
भागवत पुराण में भी योग पर विस्तार से लिखा गया है 14 तांत्रिक सम्प्रदाय वालों ने भी योग को तन्त्र में स्थान दिया है । अनेक तंत्रग्रंथों में योग का विश्लेषण उपलब्ध होता है। महानिर्वाण तन्त्र और षट्चक्रनिरूपण" में योग पर विस्तार से प्रकाश डाला है। मध्यकाल में तो योग पर जन-मानस का अत्यधिक आकर्षण बढ़ा जिसके फलस्वरूप योग की एक पृथक् सम्प्रदाय बनी जो हठयोग के नाम से विश्रुत है, जिसमें आसन, मुद्रा, प्राणायाम प्रभृति योग के बाह्य अंगों पर विशेष बल दिया गया। हठयोग प्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक, योग तारावली, बिन्दुयोग, योगबीज, योग कल्पद्रुम आदि मुख्य ग्रन्थ हैं। इन ग्रंथों में आसन, बन्ध, . ९. कठोपनिषद् २-६-११; १-२-१२
१०. श्वोतश्वतर उपनिषद् ६ और १३ ११. देखिए गीता ६ और १३ वा अध्याय १२. देखिए योग वासिष्ठ -छः प्रकरण १३. ब्रह्मसूत्र भाष्य २-१-३ १४. भागवत पुराण, स्कंध, ३ अध्याय २८, स्कंध ११, अध्याय
१५, १९, २० १५. महानिर्वाण तंत्र : अध्याय ३ और (Tantrik texts) में
प्रकाशित १६. षट् चक्र निरूपण, पृष्ठ ६०, ६१, ८२, ९०, ९१ और १३४
मुद्रा, षट्कर्म, कुम्भक, पूरक, रेचक आदि बाह्य अंगों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। घेरण्ड संहिता में तो आसनों की संख्या अत्यधिक बढ़ गयी है। __गीर्वाण गिरा में ही नहीं अपितु प्रान्तीय भाषाओं में भी योग पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। मराठी भाषा में गीता पर ज्ञानदेव रचित ज्ञानेश्वरी टीका में योग का सुन्दर वर्णन है । कबीर का बीजक ग्रंथ योग का श्रेष्ठ ग्रंथ है।
बौद्ध परम्परा में योग के लिए समाधि और ध्यान शब्द का प्रयोग मिलता है । बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग को अत्यधिक महत्व दिया है। बोधित्व प्राप्त करने के पूर्व श्वासोच्छवास निरोध की साधना प्रारम्भ की थी। किन्तु समाधि प्राप्त न होने से उसका परित्याग कर अष्टांगिक मार्ग को अपनाया ।10 अष्टांगिक मार्ग में समाधि पर विशेष बल दिया गया है। समाधि या निर्वाण प्राप्त करने के लिए ध्यान के साथ अनित्य भावना को भी महत्व दिया है। तथागव बुद्ध ने कहा--भिक्षो ! रूप अनित्य है, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है, संस्कार अनित्य है, विज्ञान अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःखप्रद है। जो दुःखप्रद है वह अनात्मक है जो अनात्मक है, मेरा नहीं है। वह मैं नहीं हूँ। इस तरह संसार के अनित्य स्वरूप को देखना चाहिए।"
जैन आगम साहित्य में योग शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु योग शब्द का अर्थ जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध परम्परा में हुआ है उस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। वहां योग शब्द का प्रयोग मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के लिए हुआ है। वैदिक और बौद्ध परम्परा में जिस अर्थ को योग शब्द व्यक्त करता है उस अर्थ को जैन परम्परा में तप और ध्यान व्यक्त करते हैं।
ध्यान का अर्थ है मन, वचन और काया के योगों को आत्मचितन में केन्द्रित करना । ध्यान में तन, मन और वचन को स्थिर करना होता है । केवल सांस लेने की छूट रहती है। सांस के अतिरिक्त सभी शारीरिक क्रियाओं को रोकना अनिवार्य है। सर्व प्रथम शरीर की विभिन्न प्रवृत्तियां को रोकी जाती हैं, वजन को नियन्त्रित किया जाता है। और उसके पश्चात् मन को आत्म स्वरूप में एकाग्र किया जाता है। प्रस्तुत साधना को हम द्रव्य साधना और भाव साधना कह सकते हैं । तन और वचन की साधना, द्रव्य साधना और मन की साधना भाव साधना है ।
जैन परम्परा में हठयोग को स्थान नहीं दिया गया है और न प्राणायाम को आवश्यक माना है । हठयोग के द्वारा जो नियन्त्रण किया जाता है उससे स्थायी लाभ नहीं होता और न आत्मशुद्धि होती है और न मुक्ति ही प्राप्त होती है । स्थानांग, समवायांग, भगवती, उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में ध्यान के लक्षण और उनके प्रभेदों पर प्रकाश डाला है । आचार्य १७. ज्ञानेश्वरी टीका-छठा अध्याय, १८. अंगुत्तर निकाय, ६३, १९. संयुक्त निकाय ५, १०
वी.नि.सं. २५०३
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