Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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अब जब संस्था अस्तित्व में आ गई है तो सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि संस्था के आविर्भाव के संवत् २०९६ से संवत् २०३४ तक के दीर्घकाल में समाज को परिषद से क्या क्या उपलब्धियाँ प्राप्त हुई। इसका भी विशद विवेचन न करते हुए एक ही प्रश्न पुन: मैं सामने रखना चाहूंगा कि जो भी व्यक्ति परिषद के सामने आया; उसने परिषद को उसके कार्यकर्ताओं के माध्यम से किस रूप में पाया ? उत्तर सहज ही सामने आयेगा कि नगर-नगर, गाँव-गाँव में जो कि भारत के अंचल की चारों दिशाओं में स्थित है। वहां पर परिषद नाम की एक संस्था स्थापित है और उसके कार्यकर्ताओं का अन्यत्र स्थित परिषद के कार्यकर्ताओं की एक दूसरे से जान-पहचान से लेकर केन्द्रीय परिषद के माध्यम से कार्य करने की प्रणाली तथा अपनी अपनी क्षमता का परिचय एक दूसरे को हुआ।
इसका तात्पर्य यह निकला कि समाज में संगठित होने की भावना भौतिक रूप में प्रकट हुई अर्थात् कार्यकर्तागण एक जुट, एकमन होकर कार्य की सिद्धि में लग गये । जब अपने पहले उद्देश्य की ओर निष्ठावान और कर्मठ कार्यकर्तागण अग्रसर हुए तो उनको दूसरे उद्देश्य की पूर्ति आवश्यक प्रतीत हुई अर्थात् ज्ञानाभाव का अनुभव हुआ। अतः परिषद ने जगह जगह धामिक पाठशालाएँ, वाचनालय, पुस्तकालय, लेख प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कर समाज के नन्हे नन्हे किशोरों से लेकर वयोवृद्ध तक को मुखरित कर दिया। क्या यह सच्चाई नहीं? इस सत्य का प्रत्यक्ष प्रमाण हमारी परिषद द्वारा आयोजित कार्यकरिणी की मीटिंगों के स्थल तथा अधिवेशन स्थल हैं । जहाँ समाज के नवयुवकों की नवचेतना के दर्शन होते हैं । जब जागृति आई और पाठशालाएँ, वाचनालय, पुस्तकालय, कला-केन्द्र आदि चलने लगे तो उनको सुव्यवस्थित एवं समुचित रूप से चलाने के लिए द्रव्य की आवश्यकता परिषद शाखाओं को अनुभव हुई। परिषद शाखाओं ने केन्द्रीय कार्यालय को अपनी आवश्यकताओं से अवगत कराया। केन्द्रीय कर्यालय ने यथाशक्ति आर्थिक सहायता देकर परिषद शाखाओं द्वारा संचालित प्रवृत्तियों को गतिमान बनाया।
इसी प्रकार परिषद की कई शाखाओं ने अपने-अपने गाँवों के छात्रों को धार्मिक ज्ञान की शिक्षा देकर जैन तत्त्वज्ञान विद्यापीठ पूना और जैन धार्मिक शिक्षण संघ बम्बई की परीक्षाओं में
बिठाया । कई छात्र परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए और कइयों ने पुरस्कार भी अर्जित किये। इससे यह कहा जा सकता है कि परिषद अपने उद्देश्यों में सफलता प्राप्त कर रही है। परिषद गतिशील है । यदि गति में कहीं बाधा दिखाई पड़ती है तो परिषद के कार्यकर्तागण दौरे करके सम्बन्धित प्रवृत्ति को पुनः पुनः गतिमान बनाते हैं और रुकावट हटा देते हैं ।
दौरे करते समय केन्द्रीय पदाधिकारी यह भी ध्यान रखते हैं कि किसी परिषद शाखा की क्षमता अधिक है तो वहाँ नई प्रवृत्ति भी प्रारंभ करवाते हैं और यदि किसी परिषद शाखा की क्षमता का समुचित उपयोग नहीं हो रहा हो तो उन्हें मार्गदर्शन करते हैं और समाज को समुन्नत करने की प्रवृत्ति चालू करवाते हैं।
परिषद के माध्यम से हमारी समाज में आपसी जान पहचान बढ़ी है और परिषद एक संगठित संघ के रूप में समाज के सामने आयी है । जो कार्य जहां कहीं भी परिषद को सौंपा गया उस कार्य को समाज के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने पूर्ण निष्ठा से सम्पन्न कर समाज के हृदय में परिषद ने अपना स्थान बनाया है।
समाज के समक्ष परिषद ने जिन उत्सव, महोत्सव, प्रतिष्ठाओं तथा तपाराधन में सहयोग दिया है। उनमें से कुछ कार्य निम्नलिखित हैं
(१) स्वर्गीय पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की निश्रा एवं उपदेश से आयोजित उपधान तप में सेवा करना तथा आकोली प्रतिष्ठोत्सव में सेवा करना ।
(२) श्री मोहनखेड़ा में पूज्य गुरुदेव श्री यतीन्द्रसूरिजी महाराज की मूर्ति का प्रतिष्ठोत्सव ।
(३) वर्तमानाचार्य श्री विद्याचंद्रसूरिजी का पाटोत्सव महोत्सव।
(४) साध्वीजी प्रियदर्शनाश्रीजी का दीक्षा महोत्सव आदि प्रसंगों पर नययुवक एक सूत्र में बंधकर संगठित रूप इन सब कामों में सहयोग जो परिषद की उपलब्धि है, जिससे सभी ने अनुशासनबद्ध हो काम किया।
परिषद गुरुदेव प्रदर्शित मार्ग पर निरंतर बढ़ती जायेगी और उससे संघ समाज को और अनेक उपलब्धियां प्राप्त हो सकेंगी।
हाट, हवेली, जवाहरात, लाड़ी, वाड़ी, गाड़ी, सेठाई और सत्ता सब यहीं पड़े रहेंगे । दुःख के समय, इनमें से कोई भी भागीदार नहीं होगा और मरणोपरान्त इनके ऊपर दूसरों का आधिपत्य हो जाएगा।
-राजेन्द्र सूरि
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राजेन्द्र-ज्योति
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