Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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जैन समाज द्वारा धार्मिक शिक्षण-व्यवस्था
सौभाग्यमल जैन
जैन धर्म के अन्तर्गत विभिन्न संप्रदायों (जिन्हें वास्तव में परम्परा कहा जाना चाहिये) की ओर से देश में कई स्थानों पर शिक्षा देने की व्यवस्था है । कहीं कहीं तो उच्च शिक्षा की व्यवस्था तक है, कहीं स्नातक, कहीं स्नातकोत्तर, कहीं माध्यमिक, कहीं उच्चतर माध्यमिक, कहीं प्रारम्भिक तक की शिक्षा देने वाले प्रतिष्ठान स्थापित किये हैं, साथ ही उनमें धार्मिक शिक्षण भी दिया जाता है। जहां तक लेखकों को ज्ञात है इन शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षण अपनी अपनी परम्परा (सम्प्रदायों) से सम्बन्धित मान्यताओं पर आधार रखकर बनाई हुई पाठ्य पुस्तकों द्वारा दिया जाता है तथा उनकी परीक्षा पद्धति भी पृथक् पृथक् है । परिणाम यह होता है कि बच्चे या शिक्षार्थी के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता शिक्षा प्राप्ति के समय से ही घर कर जाती है।
जैन धर्मान्तर्गत प्रत्येक संप्रदाय के आदर्श महापुरुष तथा सिद्धान्त एक हैं। यह सत्य है कि उन महापुरुषों के जीवन की कुछ घटनाओं के कारण एक संप्रदाय का दूसरी संप्रदाय की मान्यता में कहीं कहीं अन्तर है। साथ ही सिद्धान्तों की तफसील में कहीं कहीं अन्तर है किन्तु शिक्षा (ज्ञान दान) जैसे पवित्र कार्य में यदि हम साम्प्रदायिक मतभेदों को एक तरफ रखकर केवल सैद्धान्तिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बनवावें तथा उसी के अनुरूप शिक्षार्थी को शिक्षा प्रदान करें तो हमको ऐसे शिक्षित नवयुवकों को एक दल मिलेगा जिसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश नहीं होगा। वह अपने सम्प्रदाय के प्रारंभ-कर्ता या प्रतिष्ठापक के प्रति नहीं अपितु अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के प्रति निष्ठावान होगा । इसी प्रकार वह साम्प्रदायिक मान्यताओं का प्रचार नहीं करेगा। अपितु जैन धर्म का प्रचार करेगा।
आज के इस युग में अधिक आवश्यकता यह है कि हम अपने विद्यार्थी वर्ग में उदात्त जैन धर्म की शिक्षा देवें । ताकि वह शिक्षा
समाप्त करने के पश्चात् सच्चे अर्थ में जैन रह सकें। साथ ही यदि जरूरी हो तो जैन धर्म का प्रचार कर सकें। हमको साम्प्रदायिक मोह कम करना पड़ेगा। आज स्थिति यह है कि हम सम्बन्धित साम्प्रदायिकता के प्रतिष्ठापक के निकट अधिक वफादार हैं। किन्तु भगवान महावीर के प्रति उतने वफादार नहीं हैं । हमको श्वेताम्बरत्व-दिगम्बरत्व, स्थानक-वासित्व, तेरापंथित्व, तारण थित्व आदि की अधिक चिन्ता है, किन्तु जैन धर्म या श्रमण संस्कृति के उन्नयन की कम । भारत जैन महामण्डल ने काफी वर्ष पूर्व यह निश्चय किया था कि देश में स्थापित जैन पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने का प्रयत्न किया जावे। किन्तु यह निश्चय मूर्तरूप न ले सका । भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव वर्ष में एक सम्प्रदाय दूसरी सम्प्रदाय के निकट आई है इस निकटता को और बढ़ाने की जरूरत है अन्यथा जिस प्रकार तीर्थस्थानों पर स्थापित धर्मशालाओं में यात्री से सबसे पेश्तर उसकी Identity के साथ यह माहिती ली जाती है कि श्वेताम्बर हैं या दिगम्बर । यह प्रथा आज तक निःशेष नहीं हो सकी । केवल यही एक कुप्रथा जैन धर्म की उदात्तता को एक चुनौती है।
मेरा यह विश्वास है कि साम्प्रदायिक अभिनिवेश जितना पुरानी पीढ़ी में था उतना नई Generation में नहीं है । यदि है तो उसका कारण अपने माता पिता या बुजुर्ग के कारण है । आज की युवा पीढ़ी साम्प्रदायिक कट्टरता में अधिक ग्रस्त नहीं है क्या इस परिवर्तित परिस्थिति में उचित नहीं होगा कि-- १. पूरे जैन समाज के निष्पक्ष विद्वानों द्वारा इस प्रकार की शिक्षा
संस्थाओं के लिये Common पाठ्यक्रम तैयार कराया जावे कि जो जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों के आधार पर हों और जिसमें साम्प्रदायिक मतभेदजनक प्रश्नों को अछूता रखा गया हो।
(शेष पृष्ठ १५२ पर)
बी.नि.सं. २००३
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