Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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तक राज्य किया। बादामी की गुरुओं का निर्माण कार्य इसी के समय से प्रारम्भ हुआ। संभवतया इसी के शासन काल में अलतफ नगर (अल्तेम) में चालुक्यों के लधुहब्ब नामक उपराजा की पत्नी से सुप्रसिद्ध जैनाचार्य अकलंक देव का जन्म हुआ।
मंगलीश को उसके भतीजे कीर्तिवर्मन के जेष्ठपुत्र पुलकेशिन द्वितीय सत्याश्रय ने गद्दी से उतार दिया। जिसका राज्य सन् ६०८ से ६४२ तक रहा, उसने वनवासी के अप्पयिक और कदंब नरेश गोविन्द को पराजित किया। वैसे ही कोकण में मौर्यो, लाठ के गुर्जर और मालवा के राजा का दमन किया। पुलकेशिन की सबसे बड़ी विजय थी हर्षवर्धन के आक्रमण को निष्फल करना। हर्षवर्धन बौद्ध धर्म का समर्थक था। पुलकेशिन ने जैन धर्म का, किन्तु सभी धर्मों के प्रति उदार, और सहिष्णु था। पुलकेशिन ने विजय के बाद अपने गुरु रविकीर्ति को ई. ६३४ में एहोल के जैन मंदिर को उदार दान दिया। एहोल के मंदिर में पुलकेशिन की संस्कृत प्रशस्ति मिलती है। ई. ६३८ से ६४० के बीच चीनी यात्री हुवेनसांग ने पुलकेशिन के राज्य में यात्रा की। उसके विवरणों से पता चलता है कि चालुक्य के राज्य में जैन मंदिरों, निर्ग्रन्थ साधुओं तथा जैन गृहस्थ अनुयायियों की संख्या अधिक थी। यह पराक्रमी राजा ६४३ में पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। पुलकेशिन द्वितीय जैन धर्मानुयायी था।
बादामी के चालुक्यों के राज्य समय में इंपेरियल गजट के अनुसार (खंड १९ पृष्ठ २७) धाराशिव की गुफाओं का निर्माण हुआ प्रतीत होता है। यहां की मुख्य पार्श्वनाथ की प्रतिभा अग्गलदेव नाम से प्रसिद्ध थी।
पुलकेशी के पुत्र विक्रमादित्य साहसांक ने ६४२ से ६८० तक राज्य किया वह वीर, साहसी और बुद्धिमान था। पिता के साम्राज्य और प्रतिष्ठा की स्थापना करने में प्रबल, पुरुषार्थ किया । सुप्रसिद्ध विद्वान और जैन आचार्य अकंलक को अपना गुरु मानता था। यह भी जैन धर्म का उपासक था। ई. ६८० से ६९६ तक विक्रमादित्य द्वितीय ने राज्य किया। इसने भी जिनालयों को बहुत दान दिया था। इसकी बहन कुंकुम महादेवी ने सुन्दर जिनालय का निर्माण कराया। उसके बाद उसके पुत्र द्वितीय विक्रमादित्य ने सन् ७३३ से ७४४ तक राज्य किया। इसका पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय चालुक्य वंश का अंतिम नृपति था। इसके बाद महाराष्ट्र में राष्ट्रकूटों की सत्ता स्थापित हुई।
यद्यपि चालुक्य जैन धर्मानुयायी थे तो भी वैदिक व बौद्धों के प्रति भी वे उदार थे और उनके राज्य काल में भारतीय संस्कृति व धर्मों की उन्नति हुई।
है। राष्ट्रकूटों का कुलधर्म शैव होते हुए भी वे जैन धर्म के समर्थक तथा संरक्षक थे इतना ही नहीं पर आगे चलकर उनके उत्तराधिकारी जैन हो गए। दंतिदुर्ग का राज्य सन् ७५७ तक रहा । उसके बाद अकालवर्ष सिंहासन पर बैठा उसने ७५७ से ७७३ तक राज्य किया। एलोरा की गुफाओं का निर्माण इसी के समय में ७६९ से ७७० में प्रारंभ हुआ। सुप्रसिद्ध कैलाश मंदिर पहाड़ काटकर बनाया (जैनियों की इंद्र सभा और जगन्नाथ सभा आदि जैन ) गुफाएं भी इसी समय के लगभग बनना शुरू हुई। उसके बाद उसका पुत्र गोविन्द द्वितीय प्रभूत वर्ष विक्रमावलोकने सन् ७७३ से ७७९ तक राज्य किया। जो अयोग्य था। उसका चाचा ध्रुव जो पराक्रमी और वीर योद्धा था, राजा हुआ और उसने ७७९ से ७९३ ई. सन् तक राज्य किया। इसने राष्ट्रकूटों की सत्ता को प्रबल बनाया । इसी की रानी चालुक्य कुमारी शीलभट्टारिका जैन धर्म की भक्त और श्रेष्ठ कवियत्री थी। ध्रुव ने कन्नोज से अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयंभू को बुलाकर अपने साथ सपरिवार रखा । स्वयंभू ने रामायण, हरिवंश, नागकुमार चरित स्वयंभ छंद आदि ग्रंथों की रचना इसी नरेश के आश्रय में की। डा, पानश यादवकालीन महाराष्ट्र में लिखा करते हैं यादवों के पूर्व राष्ट्रकूटों का समय जैन धर्म की उन्नति का काल था।
ध्रुव के उत्तराधिकारी पुत्र तृतीय गोविन्द ने ७९३ से ८१४ तक राज्य किया। उसने राष्ट्रकूटों की नई राजधानी मान्यखेट के बाहर प्राचीर का निर्माण कराया। और मान्यखेट को सुन्दर और सुदृढ़ नगरी बनाई। गोविन्द के काल में राष्ट्रकूटों की सभी दृष्टि से उन्नति हुई। राज्य विस्तार बढ़ने के साथ-साथ काफी सांस्कृतिक कार्य हुए । इस काल में जैन धर्म काफी फला फूला। गोविन्द की मृत्यु के समय उसके पुत्र अमोघ वर्ष की आयु मात्र ९ साल की थी। उसका काका कर्मराज, उसका अभिभावक एवं संरक्षक बना । अमोघवर्ष को बालक देख गंग, पल्लव, पांड्य, पूर्वी चालुक्य आदि अधीनस्थ राजाओं ने विरोध किया। किन्तु कर्कराज की स्वामीभक्ति, वीरता, बुद्धिमत्ता तथा तत्परता के कारण विद्रोह का दमन हुआ। नई राजधानी मान्यखेट में ई. सन् ८२१ में अमोघवर्ष का राज्याभिषेक हुआ। उसकी शक्ति, वैभव और प्रताप उत्तरोत्तर बढ़ता गया। ई. ८५१ में अरब सौदागर सुलेमान भारत आया था। उसने लिखा है भारत का वल्लभराय (अमोघवर्ष) चीन का सम्राट बगदाद का खलिपना और रोम (कुस्तुनतुनिया) का बादशाह ये संसार के महान सम्राट हैं यद्यपि उसे प्रारंभ में उपद्रव, विद्रोह, और युद्ध का सामना करना पड़ा किन्तु कर्कराज तथा सेनापति बंकेय के पराक्रम से शत्रुओं का तत्परता से दमन होता रहा । अमोघवर्ष एक शांतिप्रिय एवं धर्मात्मा नरेश था। सौदागर सुलेमान की तरह अलइंद्रिसी, मसूरी, उन्नहीकल आदि अरब सौदागरों ने भी अमोघवर्ष के प्रताप और वैभव एवं साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि की भरपूर प्रशंसा की है। उसका शासन सुव्यवस्थित था। वह विद्वान और गुणीजनों का प्रेमी था। स्वयं भी विद्वान और कवि था। उसने संस्कृत प्राकृत, कन्नड़ और तमिल भाषा में विविध विषयों पर साहित्य सृजन में प्रोत्साहन दिया। आचार्य जिनसेन
राष्ट्रकूट वंश
कीर्तिवर्मन को पराजित कर दंतिदुर्ग राष्ट्रकूट वंश का प्रथम प्रतापी नरेश हुआ। वह अपनी राजधानी ऐलिचपुर (अचलपुर) से एलोरा ले गया। जो शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैनियों का समन्वय स्थल था। यहां की गुफाएं जो सभी धर्मों की हैं समन्वय का प्रतीक
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राजेन्द्र-ज्योति
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