Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
View full book text
________________
४.-५. मिथ्यादृष्टि प्रशंसा और मिथ्यावृष्टि संस्तव-प्रशंसा का अर्थ है किसी की स्तुति करना, किसी के गुणों का उत्कीर्तन करना । संस्तव का अर्थ है किसी का परिचय करना, किसी से मेलजोल बढ़ाना। प्रश्न यह है कि यहां पर प्रशंसा और संस्तव को अतिचार दोष और दूषड़ क्यों माना गया है ? मनुष्य के मन पर संगति और वातावरण का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति की संगति और वातावरण में रहने वाला व्यक्ति कभी न कभी अपने मार्ग को छोड़ कर उसके रंग में रंग जावेगा। पाषंड शब्द के विविध ग्रन्थों में विविध अर्थ किये गये हैं। एक अर्थ है पथ भ्रष्ट व्यक्ति, दूसरा अर्थ है पंथ एवं सम्प्रदाय और तीसरा अर्थ है व्रत। सम्यक्त्वी की साधना भोगप्रधान नहीं होती है। इंद्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त होने वाले सुख परापेक्षी होने से "पर" कहलाते हैं। इन सुखों की आकांक्षा से किये गये व्रत “पर-पाषंड" हैं । आचार्य हरिभद्र ने पाषंड शब्द का अर्थ व्रत किया है-"पाखण्ड व्रत मिथ्याहु"। ऐसे व्रत को स्वीकार करने वाले परपाखंडी कहलाते हैं। परपाखंडी धर्मविहीन होते हैं और इन्द्रियों के सुख को महत्व देते हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि आत्म-दर्शन करना चाहता है। दोनों के साध्य भिन्न होने से सम्यक्त्वी न तो परपाखंड रूप व्रतों को स्वीकार करता है और न परपाखंडी की प्रशंसा ही करता है।।
सम्यक्त्व के दोषों का वर्णन करते समय यह कहा गया है कि अतिचारों को समझो अवश्य पर उनका आचरण भूल कर भी नहीं करना । पाप को समझना तो आवश्यक है, किन्तु उसका आचरण नहीं करना चाहिये, उसका समझना इसलिए आवश्यक है कि हम समय पर उस पाप से बच सकें।
जिस व्यक्ति में सम्यग्दर्शन होता है उस व्यक्ति का आचरण कैसा होता है। शास्त्रीय भाषा में इसे दर्शनाचार कहते हैं।
निस्संकिय निक्कांखिय, निम्विीत्तिगिच्छा अमूढदिट्ठीय ।
उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ।। उत्त. २८-३१ (निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपवृहंण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना-ये आठ सम्यक्त्व के अंग हैं)।
१. निःशंकता-इसका अर्थ है सर्वज्ञ और वीतराग की वाणी में किसी प्रकार की शंका नहीं करना । जीवन में सत्य के प्रति अगाध आस्था ही वस्तुतः निःशंकता है।
२. निष्कांक्षता-निष्कांक्षता का अर्थ है किसी भी प्रकार के अविहित एवं मर्यादाहीन भोग पदार्थ की इच्छा और अभिलाषा न करना । साधना की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि मन में किसी भी पदार्थ के प्रति साधना पथ से पतित करने वाला आकर्षण न हो।
३. निविचिकित्सा-इसका अर्थ है कि शरीर के दोषों पर दृष्टि न रखते हुए आत्मा के सद्गुणों से प्रेम करना। गुणदृष्टि और गुणानुराग ही निर्विचिकित्सा का प्रधान उद्देश्य है। निर्विचिकित्सा का एक अर्थ यह भी है कि मन में यह विकल्प
नहीं रखना चाहिये कि मुझे मेरी साधना का फल मिलेगा या नहीं। इसका एक यह भी अर्थ किया जाता है कि संयम परायण एवं तपोधन मुनि मलक्लिन्न, कृशतन और वेश को देख कर ग्लानि न करना।
४. अमुढ़दृष्टिता-जीवन में विवेक स्थिर करने के लिये मूढ़ता का परित्याग करना परमावश्यक है। शास्त्रों में अनेक प्रकार की मूढ़ताओं का वर्णन किया गया है-लोकमूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता।
(अ) लोकमूढ़ता में उन सभी पापों का समावेश हो जाता है जो लोक एवं समाज की अंध-श्रद्धा के बल पर चलते हैं। समाज में प्रचलित रूढ़ियां भी लोकमढ़ता का ही एक रूप हैं।
(ब) शास्त्रमूढ़ता-सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी शास्त्र को तब मानता है जबकि वह उसकी कसौटी कर लेता है। जब एक व्यक्ति कहता है कि मेरी संप्रदाय का शास्त्र ही सच्चा है, अन्य सब झूठे तो यह भी एक प्रकार की शास्त्रमूढ़ता ही है।
(स) देव मूढ़ता-विकारों के पूर्ण विजेता और वीतरागी देव को देव न मान कर विकारी देव को देव मानना, देवमूढ़ता है
(द) गुरुमढ़ता-साधनाभ्रष्ट और चरित्रहीन व्यक्ति को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है। इसका यह भी अर्थ लिया जाता है कि परीक्षा के बिना ही हर किसी को गुरु स्वीकार कर लेना और फिर स्वार्थ सिद्ध न होने पर परित्याग कर देना और किसी अन्य को अन्धभाव से गुरु बना लेना गुरुमूढ़ता है यह भी त्याज्य है।
५. उपबं हण-इसका अर्थ है वृद्धि करना, बढ़ाना या पोषण करना । न अपने सत्कर्म की अवहेलना करनी चाहिये और न दूसरे के सत्कर्म की। जहां तक हो सके सद्गुणों एवं सत्कर्मों को बढ़ावा देना चाहिये। उपबृहण शब्द के स्थान पर उपगुहन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ है "छिपाना"। सम्यग्दृष्टि को ऐसा आचरण नहीं करना चाहिये जिससे धर्म और उसकी संस्कृति की लोकनिन्दा हो। कदाचित् किसी कारण से धर्म की अवहेलना होती भी हो, तो उसे दूर करना ही उपगून कहा जाता है। परदोष दर्शन की प्रवृत्ति बड़ी ही भयंकर है। दूसरों के दोषों का सुधार तो करना चाहिये, परन्तु उसकी निन्दा के ढोल नहीं बजाना चाहिये। दूसरों के दोषों का उपगूहन करके उसके गुणों का आदर करो, उसके गुणों की अभिवृद्धि करो, यही उसका प्रधान उद्देश्य है।
६. स्थिरीकरण-इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म के मार्ग से गिर रहा हो तो उसे सहारा दे कर फिर धर्म में स्थिर कर देना । संघ में जो व्यक्ति निर्धन है, और अभावग्रस्त हैं और जो अपनी अभावग्रस्तता के कारण अथवा अपनी निर्धनता के कारण, अपनी संस्कृति या अपने धर्म से हट रहे हैं, उनकी समस्याओं को सुलझा कर और उनके मानसिक विकल्पों को दूर करके पुनः धर्मपथ पर लगा देना ही स्थिरीकरण का अभिप्राय है।
वी.नि.सं. २५०३
१५७
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org