Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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अमरीकी संग्रहालयों एवं निजी संग्रहों में
जैन प्रतिमाएं
डा० ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा
अब से लगभग ५० वर्ष पूर्व जब सुप्रसिद्ध विद्वान डा. आनंद कुमारस्वामी ने भारतीय कला का सही ढंग से मूल्यांकन संसार के सामने रखा तभी से योरोप एवं अमेरिका के संग्रहालयों एवं अन्य अमीर लोगों में भारतीय कलातियों को प्राप्त करने की होड़ सी लग गई है। इसके फलस्वरूप वहां के संग्रहालयों में अलगअलग ढंग से भारतीय कक्षों की भी स्थापना हुई जिसमें पाषाण, कांस्य, मृण्यमय, काष्ठ, हाथी-दांत की मूर्तियों के अतिरिक्त सुन्दर लघ चित्रों को भी प्रदर्शित किया गया । अमेरिका के लगभग प्रत्येक संग्रहालय में अन्य धर्मों के देवी-देवताओं के साथ साथ जैन तीर्थंकरों एवं यक्ष-यक्षणी आदि की प्रतिमायें भी विद्यमान हैं जो जैन धर्म एवं कला के विद्यार्थियों के अध्ययन के लिये बड़ी उपयोगी हैं। प्रस्तुत लेख में हम ऐसे ही संग्रहालयों एवं वहां के निजी संग्रहों में संग्रहीत कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमाओं का संक्षेप में वर्णन करेंगे । बम्बई निवासी श्री नसली हीरामानिक अब से काफी समय पूर्व अमरीका में बस गये थे और वहां उन्होंने देश विदेश की कलाकृतियों का बड़ा अच्छा संग्रह कर लिया । इनकी पत्नी श्रीमती एलिस 'मानिक को भी अपने पति के साथ प्राचीन कलाकृतियों के संग्रह में रुचि थी। इनके संग्रह में तीन जैन मूर्तियां हैं जिनका उचित स्थान पर वर्णन करेंगे । इनमें सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति तेवीसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की है । धातु की ९ वीं शती ई० की यह कलात्मक मूर्ति गुजरात में अकोटा से प्राप्त समकालीन मूर्तियों से काफी साम्यता रखती है। प्रस्तुत मूर्ति में पार्श्वनाथ को एक सुन्दर सिंहासन पर ध्यान मुद्रा में बैठे दिखाया गया है। इनके शीष के ऊपर बने सर्प के सात फणों में से अब केवल तीन ही शेष बचे हैं। अन्य चार टूट गये हैं पार्श्वनाथ के वक्ष पर श्री वत्स चिन्ह है। इस त्रितीर्थी में मख्य मति के दोनों ओर सम्भवतः महावीर एंव आदिनाथ की छत्र के नीचे कायोत्सर्ग मद्रा में प्रति
मायें हैं और प्रत्येक के पीछे सुन्दर प्रभा-मण्डल है । सिंहासन की दाहिनी ओर यक्ष सर्वानुभूति की गजारूढ़ एंव बाईं ओर यक्षिणी अम्बिका के दाहिने हाथ में आम्र लुम्बी है और वह बाएं हाथ से गोद में लिए बालक को पकड़े हुए है। सिंहासन पर सामने धर्म चक्र के दोनों ओर एक-एक मृग बैठे दिखाए गए हैं और किनारों पर चार-चार ग्रहों का अंकन है । इसी से साम्य रखती एक मूर्ति बम्बई के प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में प्रदर्शित है (नं. ६७०८)।
पार्श्वनाथ की एक अत्यन्त कलात्मक मूर्ति एवरी ब्रन्डेज संग्रह में भी स्थित है । इसमें वह सात फणों के नीचे जिनके ऊपर त्रिक्षत्र बना है, एक पद्मासन पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं । प्रशांत मुद्रा, लम्बे कान, आजानुबाहु आदि विशेषताओं जिनका वराहमिहिर ने अपनी 'बृहत्संहिता' में उल्लेख किया है, को कलाकार ने बड़ी सजीवता से दर्शाया है। नग्न होने के कारण प्रतिमा दिगम्बर सम्प्रदाय की प्रतीत होती है । मूलमूर्ति के पैरों के समीप एक एक चंवरधारी सेवक तथा उनके ऊपर गज शार्दुल बने हैं । जिनके शीष के दोनों ओर एक-एक हंस व बादलों में उड़ते मालाधारी गन्धर्व प्रदर्शित किए गए हैं। मूर्ति की पीठिका पर कमल नाल के पास नाग व नागी, उपासक तथा नेवैद्य आदि का भी चित्रण है। यह मूर्ति बिहार में पाल शासकों के समय ११ वी शती ई० में बनी प्रतीत होती है।
क्लीवलेण्ड म्युजियम आफ आर्ट में पार्श्वनाथ की एक दुर्लभ मूर्ति प्रदर्शित है । मध्य भारत में लगभग १० वीं शती में निर्मित इस मूर्ति में कमठ अपने साथियों सहित पार्श्वनाथ पर आक्रमण करता दिखाया गया है । प्राचीन जैन ग्रंथों में वणित कथा के अनुसार जब पार्श्वनाथ संसार त्यागने के बाद तपस्या में लीन थे तब कमठ ने उन्हें तपस्या करने पर अनेक प्रकार की बाधाएं डाली, उसने उन पर पर्वत शिलाएं फैकी, घोर वर्षा करी तथा सिंह, बिच्छू
वी. नि. सं. २५०३
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