Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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नमस्कार - ज्योति
मफतलाल संघवी
जिण-सासणस्स सारो, चउदस्स पुव्वाण जो समुद्धारो, जस्स मणे नवकारो, संसारो तस्स किं कुणई ॥१॥ परम उपकारी महर्षियों ने उक्त सूत्र में मन्त्राधिराज श्री नवकार का अचिन्त्य जो सामर्थ्य और गाम्भीर्य है, उसका यथार्थ परिचय हमें करवाया है। लेकिन हमारी कक्षा निम्न स्तर की होने से हम उक्त सूत्र का यथार्थ रहस्य समझने में असहाय एवं असमर्थ हो रहे हैं । यह एक सिद्ध हकीक़त है कि एक काल में एक स्थान में दो पदार्थ रह नहीं सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती। फिर भी हम सब मोह के प्रभाव से भ्रमित होकर, ममत्व से मछित होकर, हमारे मन में सांसारिक सुखों की भूख को अच्छी तरह से पनपाते हैं और कुत्ते को रोटी का टुकड़ा देने के समान यदा-कदा बचे समय में औपचारिक ढंग से कभी-कभी मंत्राधिराज श्री नवकार का स्मरण कर लेते हैं ।
अपने जीवन में श्री नवकार कोप्रधान स्थान क्यों देना चाहिए? इस प्रश्न का समाधान है कि अगर हमने सच्चे भाव से पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया होता तो हमारा उद्धार हो जाता। पंच परमेष्ठी को नमस्कार करने से पाप का ही अन्त नहीं वरन् पापकारक वृत्तियों का भी क्षय हो जाता है। श्री नवकार केवल पापनाशक ही नहीं है किन्तु सर्वपाप प्रकाशक भी है । पाप का प्रकटन तब होता है जबकि भगवंतों के नमन में मन स्थिर हो जाता है । मन का स्थिर होना ही 'न-मन' का तात्पर्य है।
दूध में मिश्री के समान जब नमस्कार्य भगवन्तों में हमारा मन विलीन हो जाता है तब हम पर्याय के पिंजड़े से निकल कर आत्मद्रव्य' की अनुपम अनुभूति को प्राप्त करते हैं ।
काषायिक जीवन क्षुद्र भी है और सीमित भी । पंचेद्रियों के विषय मिल जाने पर 'हमें जीवन मिल गया' ऐसा समझना, बोलना, या सोचना यह क्षद्रता का लक्षण है । स्वत्व के विश्व-विस्तार में अवरोधक विषयों को स्व का श्रेय मान लेना यह गंभीर अपराध है। स्व का स्थान स्वार्थ को देना और स्वार्थ का स्थान स्व को देना यही मिथ्यामति की तिरछी चाल का प्रतीक है। मति की गति के आधार पर जीवन-जहाज की सफर का अन्दा निकलता है। सम्यक् गति हमें मिथ्या में आसक्त होने से बचा लेती है और अगर मति की गति विपरीत होती है तो हम मिथ्या में मस्त हो जाते हैं। मति की गति को यथार्थ रास्ता तब मिलता है जब हम नमस्कार में अपनी समग्रता को केन्द्रीभूत कर लेते हैं।
आज तक हमने अन्य जीवों से द्वेष करके श्री जिनेश्वरदेव की आज्ञा से विपरीत कार्य ही किया है। जड़ का राग, जीय के द्वेष में परिणमणता है। जीव-द्वेष अर्थात् दुर्लभ मानव-जीवन की बरबादी।
कडी धूप में जैसे कपड़ा सूख जाता है वैसे ही श्री तीर्थ'कर परमात्मा के ध्यान से आत्मा की असलियत खुलने लगती है और मोह का प्राबल्य लुप्त होने लगता है ।
क्या हमको जितना अपना नाम प्यारा है, क्या उतना ही प्यारा हमें अरिहंत का नाम है ? हरगिज नहीं। कहते हैं कि "जहाँ चलता है श्री नवकार का नाम, वहाँ नहीं ठहरता है पाप ।” परन्तु क्या हम पापमय प्रवृत्ति से सचमुच ही दूर रहने की कामना करते हैं ? जीवन में जिसे ऊंचा उठना है उसे श्रेष्ठतम आत्माओं से नाता जोड़ना पड़ता है । जबकि हमारा नाता तो ऐहिक सुख की कामना से बना हुआ है। परम तारक श्री तीर्थंकर देव की भावदया में स्थान पाने वाले हम इतना भी नहीं सोचते है कि हमारा कर्तव्य क्या है?
वी. नि.सं. २५०३
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