Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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मालवा में आगमिक और दार्शनिक साहित्य की सर्वाधिक उल्लेखनीय उपलब्धि है । आचार्य भद्रबाहु के कल्पसूत्र के अतिरिक्त क्षपणक ने जो किंवदन्तियों के अनुसार विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माने जाते हैं दर्शन शुद्धि, सम्मति तर्कसूत्र, प्रमेय रत्नकोष एवं न्यायावतार ग्रंथों की रचना की । न्यायावतार ग्रन्थ अपूर्व है। यह अत्यन्त लघु ग्रन्थ है किन्तु इसे देखकर गागर में सागर भरने की कहावत याद आ जाती है । बत्तीस श्लोकों में क्षपणक ने सारा जैन न्यायशास्त्र इसमें भर दिया है। न्यायावतार पर चन्द्रप्रभसूरि ने न्यायावतार निवृत्ति नामक विशद टीका भी लिखी है। आगम साहित्य को व्यवस्थित एवं सरल करने का श्रेय आर्यरक्षित सूरि को है। आपका जन्म मन्दसौर में हुआ था। आपने आचार्य तोसलीपुत्र से जैन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया फिर गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्त सूरि तथा आर्य वज्रस्वामी के समीप रहकर विद्याध्ययन किया। आचार्य आर्यरक्षित सूरि ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की सार्वजनिक हित की दृष्टि से उत्तम एवं महान कार्य यह किया कि यह जानकर वर्तमान में साथ ही भविष्य में भी जैनागमों की गहनता एवं दुरूहवृत्ति से असाधारण मेधावी भी एक बार उन्हें समझने में कठिनाई का अनुभव करेगा, आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया । यथा
१. चरणा-करणानुयोग २. गणितानुयोग ३. धर्मकथानुयोग ४. द्रव्यानुयोग
इसके साथ ही आचार्य आर्यरक्षित सूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की भी रचना की जो जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्वपूर्ण आगम माना जाता है। यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम दार्शनिक दृष्टि का परिचायक है। सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित "सम्मति प्रकरण" प्राकृत में है। जैन दृष्टि और मन्तव्यों को तर्क शैली में स्पष्ट तथा स्थापित करने में यह जैन वाङमय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है जिसक। आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर विद्वानों ने लिया । सिद्धसेन दिवाकर ने तत्वार्थाधिगमसूत्र की टीका भी बड़ी विद्वत्ता से लिखी है। इस ग्रन्थ के लेखक को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले उमास्वामिन् और श्वेताम्बर सम्प्रदायवाले उमास्वाति बतलाते हैं । देवसेन कृत दर्शनसार का विक्रम संवत ९९० में धारा के पार्श्वनाथ मंदिर में रचे जाने का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त 'आलाप पद्धति इनकी न्यायविषयक रचना है। एक लघुनयचक्र जिसमें ८७ नगमादि नौ नयों को उनकी गाथाओं द्वारा द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दो तथा उनके भेदोपभेद के उदाहरणों सहित समझाया है। दूसरी रचना वृहन्नयचक्र है। जिसमें ४२३ गाथाएं हैं और उसमें नयों और निक्षेपों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है। रचना के अंत की ६-७ गाथाओं में लेखक ने एक महत्वपूर्ण बात बतलाई है कि आदितः उन्होंने दव्यसहाव पयास (द्रव्य स्वभाव प्रकाश) नाम के इस ग्रन्थ की रचना दोहा-बंध में की थी किन्तु उनके एक शुभकर नाम के मित्र ने उसे सुन कर हंसते हए कहा कि यह विषय इस छंद से शोभा नहीं देता, इसे गाथाबद्ध कीजिये । अतएव उसे उनके माहल्लधवल
नामक शिष्य ने गाथा रूप में परिवर्तित कर डाला। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप समझने के लिये देवसेन की ये रचनाएं बहुत उपयोगी हैं।' अमित गति कृत 'सुभाषित-रत्न संदोह" में बत्तीस परिच्छेद हैं जिनमें से प्रत्येक में साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है । इसमें जैन नीति-शास्त्र के विभिन्न दृष्टिकोणों पर आपाततः विचार किया गया है, साथ-साथ ब्राह्मणों के विचारों और आचार के प्रति इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है । प्रचलित रीति के ढंग पर स्त्रियों पर खूब आक्षेप किये गये हैं। एक पूरा परिच्छेद वेश्याओं के संबंध में है। जैन धर्म के आप्तों का वर्णन २८ वें परिच्छेद में किया गया है और ब्राह्मण धर्म के विषय में कहा गया है कि वे उक्त आप्तजनों की समानता नहीं कर सकते क्योंकि वे स्त्रियों के पीछे कामातुर रहते हैं, मद्य सेवन करते हैं और इन्द्रियासक्त होते हैं। अमितगति कृत श्रावकाचार लगभग १५०० संस्कृत पद्यों में पूर्ण हुआ है और वह १५ अध्याय में विभाजित है, जिनमें धर्म का स्वरूप मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का भेद, सप्ततत्व, पूजा व उपवास एवं बारह भावनाओं का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है। अंतिम अध्याय में ध्यान का वर्णन ११४ पद्यों में किया गया है जिसमें ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यानफल का निरूपण है। अमितगति ने अपने अनेक ग्रन्थों में उनके रचनाकाल का उल्लेख किया है। जिनमें विक्रम संवत् १०५० से १०७३ तक के उल्लेख मिलते हैं। अतएव उक्त ग्रन्थ का रचनाकाल लगभग १००० ई. सिद्ध होता है।' उनके द्वारा रचित योगसार में ९ अध्यायों में नैतिक व आध्यात्मिक उपदेश दिये गये हैं। अमितगति ने संस्कृत श्लोकबद्ध पंच संग्रह की रचना की जो उसकी प्रशस्ति के अनुसार वि. सं. १०७३ में मसूरिकापुर (वर्तमान मसुदविलोदा जो धारा के पास है) नामक स्थान में समाप्त हुई। इसमें पांचों अधिकारों के नाम पूर्वोक्त ही हैं तथा दृष्टिवाद और कर्मप्रवाद के उल्लेख ठीक पुर्वोक्त प्रकार से ही आये हैं । यदि हम इसका आधार प्राकृत पंच संग्रह को न मानें तो यहां शतक और सप्तति नामक अधिकारों की कोई सार्थकता ही सिद्ध नहीं होती, क्योंकि इनमें श्लोक संख्या उससे बहुत अधिक है किन्तु जब संस्कृत रूपान्तरकार ने अधिकारों के नाम वे ही रखे हैं, तब उन्होंने भी मूल और भाष्य पर आधारित श्लोकों को अलगअलग रखा हो तो आश्चर्य नहीं ।1 अमितगति की अन्य रचनाओं में भावना-अगिशतिका आराधना, सामायिक पाठ और उपासकाचार का उल्लेख किया जा सकता है।12 माणिक्य नन्दी जो दर्शनशास्त्र में तलदृष्टा विद्वान थे और त्रेतोक्यनन्दी के शिष्य थे धारा के निवासी थे । इनकी एक मात्र कृति परीक्षामुख नामक एक न्यायसूत्र ग्रन्थ है जिसमें कुल २७७ सूत्र हैं। ये सूत्र सरल, सरस और गंभीर अर्थद्योतक हैं । माणिक्यनंदी ने आचार्य अकलंकदेव के वचन समुद्र का दोहन करके जो न्यायामृत निकाला वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का द्योतक है। इनके शिष्य प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख की टीका लिखी है जो "प्रमेयकमल मार्तण्ड" के नाम से प्रसिद्ध है। प्रमेयकमल मार्तण्ड राजा भोज के राज्यकाल में रचा गया है ।"" प्रभाचन्द्र के अन्य ग्रन्थों में 'न्यायकुमुदचन्द्र" जैन न्याय का एक बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है । प्रभाचन्द्र कृत "आत्मानुशासन तिलक"
वी.नि.सं. २५०३
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