Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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"लाल पत्थर का शिलाफलक, जिसकी चौड़ाई ३४ इंच और ऊंचाई ४९ इंच है। यह मूर्ति वटुक भैरव की बतलाई जाती है । यह पद्मासनस्थ है परन्तु इस पर सिंदूर की इतनी मोटी तह चढ़ गई है कि इसका स्वरूप एकदम छिप गया है । प्रधान मूर्ति के दोनों ओर एक-एक उपासिका उत्कीर्ण है। प्रत्येक के ऊपर तीन प्रतिमाएं और भी हैं । इनके ऊपर भी एक-एक मूर्ति दोनों ओर है जो खंडित हो चुकी हैं । इसके बाद ऊपर के दोनों कोनों में चामर झलते हुए हाथी उत्कीर्ण हैं । प्रधान मूर्ति के ऊपर छत्र है । नीचे के भाग में अलंकरण है । प्रधान प्रतिमा की चौड़ाई २५ इंच और ऊंचाई २९ इंच है।
झुंझुनुं जिले में 'सकराय माता एक सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ है । " इससे थोड़ी ही दूरी पर साद' नामक ग्राम है, जिसका हाथ के प्राचीन शिलालेख (वि० सं० १०३०) में 'शंकराणक' नाम में उल्लेख है । 'सकराय माता' स्थान से तीन प्राचीन शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें से एक सं० ७४९ का है । इसके संबंध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा का वक्तव्य इस प्रकार है-
'सबसे पहले पुराना शिलालेख संवत् ७४९ द्वितीय आषाढ़ सुदी २ का है । इसके प्रारंभ में देवीजी की स्तुति है, फिर इस मंदिर के मण्डप बनाने वालों में सबसे पहले धूसर वंश के सेठ यशोवर्धन, उसके पुत्र राम, उसके पुत्र मण्डन तथा धरकट वंश के सेठ मण्डन, उसके पुत्र यशोवर्धन, उसके पुत्र गर्ग आदि के नाम हैं । इन सब सेठों ने मिलकर भगवती शंकरा देवी (शकराय माता ) के सामने का मण्डप अपने पुण्य की वृद्धि के लिए बनाया ।'
इसी शिलालेख के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार श्री झाबरमल शर्मा का वक्तव्य भी ध्यान में रखने योग्य है- "इस शिलालेख के मंगलाचरण का भाग भी बड़े कौतुक के साथ विचारने योग्य है । इसमें गणपति, चण्डिका और धनद् ( कुबेर ) इन तीन देवताओं की प्रार्थना की गई है। इस पर ध्यान देना चाहिए कि यहां गणपति और कुबेर के बीच में चण्डिका को स्थान दिया गया है । निःसंदेह इसको देखकर ओसिया वाले पीपाड़माता के मंदिर की याद आ जाती है । ओसिया वाली प्रतिमाओं में बीच की मूर्ति महिषासुरमदिन की है वह भी का हो रूप है और इसके इधर-उधर दायें-बायें यथाक्रम कुबेर और नगपति है।"
इस प्रसंग में यह तथ्य विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य है कि 'सकराय माता' का भोग नियमत: 'मीठा' ही होता है, जो संभवतः जैन प्रभाव है।
२. 'भारती' (१/२)
३. सकराय मंदिर की बही में मिती माघ सुदी १४, सं० १९९१ को लिखित श्री ओझाजी की सम्मति ।
वी. नि. सं. २५०३
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अंग
कहना न होगा कि अधिकांश पुराने संदर्भ धर्म-भावना विषयक ही प्राप्त होते हैं, जो जन-साधारण के जीवन के प्रमुख रही है। पंद्रहवीं शती की एक हस्तप्रति में लिखित 'लद्धागर रास' ( बड़गच्छीय रत्नप्रभ सूरि विरचित) का एक प्रसंग भी इस संबंध में ध्यान देने योग्य है, जिसमें भटनेर से निकले हुए एक जैन तीर्थयात्री संघ का विवरण दिया गया है। तीर्थयात्रा हेतु संघ में सम्मिलित होने के लिए संघपति ने अपने सहधर्मियों को निमंत्रण भेजे । उनका वर्णन इस प्रकार है-
साचड़ नंदणु गहगहए जगिहिं धीरू जगसीहु । लागार संघई मिलए, उवएस वंसि नह दीहु ।।१९।। नरहड़ नव्हा वर तयरे, छापर पमुह सुणमि । कुंकुंपत्री रंगि मोकलए, लद्धागरू नियनामि ||२०|| वोहिथ शाह तनूजु पहि, गुणि गरूअउ गोइंदु | संचाहि पहिल मिलए बंदण रिसह जिगं ।।२१।। आराम, वजूभा सुप सारंगु
संघाहिव संधिहि मिलए, दूगड़ वंसि सुचंगु ॥ २२ ॥ नरहड पुरवर मंडराउ, नेमनु महिमानंतु। महिपति छापरि संमिलिउ, वे बड़ बहु विह वित्तु ||२३||
इस उद्धरण में भी शेखावाटी प्रदेश के नरहड़, नवहा, आदि प्राचीन स्थानों को ससम्मान स्मरण किया गया है। यहां तक कि पन्द्रहवीं शती में विरचित जैन कवि हरिकलम की वागढ़ देश तीर्थमाला' तो इस प्रदेश की पुण्यमयता का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्घोष है, जिसका प्रारंभिक अंश इस प्रकार है-'जिण नमिय सुमंगल वागड़ मण्डल, भाविहि निम्मल ते थुणउ । अरिहंत आहउ पुण्य विसाहउ, लीजइ लाहउ' भव तणउ ॥ १ ॥ बागड़ सिहि झंझणपुर वर, सिखर बहु सोहई जिण मंदिर, नितु जिण गावई नारे । बहु चिर काल तणा जिण बिम्ब, प्रकट हुआ संघिहि अविलंब, आण्या नगर मझारे ||२|| उछव करि जिन मंदिर थापई, जिणवरमहिमा दस दिसि व्यापइ, दीप जिम जग सूरो ।
अतिबालभव आदि आदिहि अरच संत नेमि पास जिण वीरो ॥३॥
श्रीमालह सीतल जितु सोहद, नियम रूप भीरो,
नवहा नगरिहिं जिण चवीसमु, खंडेलहू श्री संति जिणुत्तमु, बतुंह गामि जिण वीरो ॥४॥
केपुरिहि पद्मप्रभ स्वामी रथवासइ लाइणु सुठामी, रिसह पमुह वंदेसो |
४. वरदा ( गांगियासर) भाग २
५. वरदा ( वर्ष १६, अंक १ जनवरी-मार्च १९७३ ) में श्री अगरचंदजी नाहटा द्वारा प्रकाशित ।
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