Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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जैन साहित्य : श्वेताम्बर, दिगम्बर
डा. रमेशचन्द्र राय
भारतवर्ष के तीन प्राचीन धर्मों-वैदिक, जैन एवं बौद्ध में से किसके मूल्य को प्राचीनतम माना जाय, अभी तक विवादास्पद ही है। इसका मुख्य कारण यह है कि इनमें जो साहित्य उपलब्ध है उनमें प्राचीनता की ओर निर्देश करने वाली ऐसी कुछ परम्परायें सुरक्षित हैं जिनकी न तो पूर्ण उपेक्षा संभव है और न ही वैज्ञानिक तथ्य के रूप में ग्रहण करने का औचित्य । महाकाव्यों और पुराणों की परम्परा के अनुसार वैदिक साहित्य अपौरुषेय है अतः उसकी प्राचीनता का निश्चय करना निर्धान्त रूप में संभव नहीं हो सका । बौद्ध साहित्य के विषय में यही धारणा है कि गौतम बुद्ध से पूर्व छः बुद्ध हो चुके हैं अतः उनका साहित्य उतना ही पूराना नहीं जितना गौतम बुद्ध के जीवन को आधार बनाकर कहा जा सकता है, ठीक यही स्थिति जैन साहित्य की भी है। महावीर स्वामी एक तीर्थंकर हैं जिन्हें ऋषभ देव से आरंभ होने वाली २४ तीर्थंकरों की सूची में चीबीसवां स्थान प्राप्त है । इस परम्परा पर विश्वास करने से इस माने की विवशता उत्पन्न होती है कि जो कुछ जैन साहित्य में सुरक्षित है वह ऋषभदेव से प्रारंभ होने वाले जैन साहित्य की परम्परा से एकदम विच्छिन्न नहीं कहा जा सकता । यदि इस तथ्य में कुछ प्रतिशत भी वैज्ञानिक सत्य स्वीकार किया जायेगा तो यह मानना पड़ेगा कि महावीर स्वामी (जीवनकाल)५९९ ईसवी से ५३० ईसवी पूर्व से, बहुत पहले से ही किसी न किसी प्रकार का जैन साहित्य चला आ रहा था । मेकामूलर आदि कुछ विद्वानों ने वैदिक संहिताओं का काल भी यही माना है । इस तरह जैन साहित्य जो पूर्वी भारत से उद्भूत होता है संभवत: प्राचीनता की दृष्टि से उतना ही पुराना है जितना वैदक साहित्य जो उत्तरी-पश्चिमः भारत तथा गान्धार तक के प्रदेश में इस काल में रचा और गाया जा रहा था
इस प्राचीनता पर जो सबसे बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा हुवा है वह यह है कि जो जैन साहित्य इस समय उपलब्ध है वह भाषा, भाव
एवं विचार-तीनों दृष्टियों से उतना प्राचीन प्रतीत नहीं होता जितना परम्परा उसे सिद्ध करना चाहती है। जैन साहित्य के संग्रह के संबंध में जो परम्परायें सुरक्षित हैं वे इस तथ्य की पुष्टि में सहायक हैं। प्राचीनतम सुरक्षित साहित्य श्रुतांगों में विभाजित है-आयारंग, सूयगड, ढाणांग, समवायांग, विवाह पण्णत्ति, नामाधम्म-कहा, उवासगदशा, अंतगडदसा, अणुचरोववाइयदसा, पण्ह वागरण, विवाग सुयं । इनके अतिरिक्त दिट्ठिवाद श्रुतांग की चर्चा जैन साहित्य में सर्वत्र है।
दिगम्बर परम्परा के अनसार यह माना जाता है कि महावीर स्वामी के संपूर्ण उपदेश उनके शिष्यों द्वारा दो भागों में करके ग्रहण किये गये-एक अंग प्रविष्ट दुसरा अंगबाह्य । अंग प्रविष्ट साहित्य वही था जिसके संबंध में दिगम्बर सम्प्रदाय यह स्वीकार करता है कि अब उसका कुछ अवशिष्ट नहीं रह गया तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय यह स्वीकार करता है कि बीर निर्वाण के पश्चात् दसवीं शताब्दी से बारह अंगों के रूप में संग्रहित हो चुका है। इस विवाद को देखकर यह कहा जा सकता है कि वस्तुत: चीथी शताब्दी में जब यह साहित्य संग्रहित हआ तब जैन सिद्धान्तों में यह विश्वास घर कर गया था कि यह साहित्य परम्परागत होने पर भी अपने मूल रूप से विच्छिन्न हो गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय यह स्वीकार करता है कि बाह्य साहित्य पूर्णत: नष्ट हो गया है, यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय उसके अस्तित्व को स्वीकार करता है। इनके अन्तर्गत स्वीकृत ग्रन्थों की प्रामाणिकता के संबंध में जो मत आचार्य पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थ सिद्धि नामक टीका में दिया है वह दृष्टव्य है। भारतीय आचार्यों ने काल दोष से मंक्षिप्त आयु, मनि, और बलशाली शिष्यों के अनुग्रहार्थ दशवकालिकादि ग्रन्थों की रचना कः । इन रचना में उतनी ही प्रमाणता है जितनी पूर्व आधारों व श्रुत केवलियों द्वारा रचित सूत्रों में, क्योकि वे अर्थ की दृष्टि से सत्र ही हैं, जिस प्रकार क्षीरोदधि से घड़े में भरा हुआ अल
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राजेन्द्र-ज्योति
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