Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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आजीविक सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की अष्ट भूमिकाएं थी, मज्झिमनिकाय की बुद्धघोषकृत सुमंगला विलास की टीका में ऐसा उल्लेख मिलता है । इन आठ भूमिकाओं के नाम निम्नलिखित हैं :
(१) मंद भूमिका
(२) खिड्डा या क्रीड़ा भूमिका
(३) पदवी मंसाभूमिका
(४) उजुगत ऋजुगत भूमिका
(५) शेख शैक्ष भूमिका
( ६ ) समण - श्रमण भूमिका
(७) जिन भूमिका
(८) पन्नप्राज्ञ भूमिका
उपर्युक्त ये आठ भूमिकाएं युक्तिसंगत न होने से जैन दर्शन के आध्यात्मिक विकास के साथ इनका मेल नहीं बैठता ।
बौद्ध ग्रन्थ पिटक में भी जैन दर्शन की तरह आध्यात्मिक विकास का स्पष्ट एवं सुव्यवस्थित रूप से अनेक जगह वर्णन किया गया है । बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है । वह आत्मा की नित्यता (सत्ता) को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार आत्मा परिवर्तनशील है । संसार के प्रत्येक पदार्थ क्षणिक हैं, नश्वर हैं फिर श्री पिक में व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास कम बताने के लिए छह अवस्थाएं प्रतिपादित की गई है
(१) धन
(२) कल्याणपुथुज्जन जिसे आर्य दर्शन या सत्संग तो प्राप्त हुआ है किन्तु जो मोक्ष मार्ग से परामुख रहता है ऐसे व्यक्ति को कल्याणपुथुज्जन कहते हैं ।
बौद्ध दर्शन में "न" से तात्पर्य सामान्य मनुष्य से है। अंध पुथुज्जन और कल्याण पुथुज्जन दोनों “पुथुज्जन" के ही दो भेद हैं। ऊपर के दोनों प्रकार के व्यक्ति दशविध संयोजनाओं में से एक भी संयोजना का क्षय नहीं कर पाते । बौद्ध दर्शन में "संयोजना" से मतलब बन्धन से है ।
: अंध पुथुज्जन उसे कहते हैं जिसे कार्य, दर्शन या सत्संग प्राप्त नहीं हुआ है और जी मोक्ष मार्ग से परामुख है।
(३) सोतापन्न जिन्होंने दस संयोजनाओं में से तीन संयोजनाओं का क्षय कर दिया हो वे सोतापन कहलाते हैं ।
वी. नि. सं. २५०३
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( ४ ) सकदागमी : जिन्होंने दस संयोजनाओं में से तीन
सं योजनाओं का क्षय कर दिया हो और दो को शिथिल कर डाला हो, वे सकदागामी कहलाते हैं ।
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(५) सोपपातिक जिन्होंने दस संयोजनाओं में से पांच संयोजनाओं का क्षय कर दिया हो, वे ओपपातिक कहलाते हैं ।
(६) अरहा
: जिन्होंने दसों संयोजनाओं का क्षय करके श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्राप्त किया हो,
वे "अरहा" कहलाते हैं । अरहा की अवस्था को प्राप्त हुए व्यक्ति निर्वाण को पा लेते हैं ।
उपर्युक्त स्थितियों के वर्णन से ऐसा लगता है कि जेसे बौद्ध दर्शन ने आध्यात्मिक विकास की छह स्थितियों का वर्णन जैन दर्शन में बताए गए चौदह गुणस्थान के आधार पर किया हो। जिस प्रकार जैन दर्शन में मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम और क्षयोपशम की प्रधानता है । बौद्ध दर्शन में भी संयोजना के क्षय की प्रधानता
है इसके साथ ही जैन दर्शन में जैसे-प्रथम भूमिका मिध्यादृष्टि की है उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी आध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका अंध - पुथुज्जन की है। जैन दर्शन में तेरहवीं और चौदहवीं भूमिका सयोगी और अयोगी केवली की है वैसे ही, बौद्धदर्शन में भी भूमिका अरहा की है।
इतना साम्य होने के बावजूद भी प्रथम और अंतिम गुणस्थानों के बीच की भूमिकाओं का आत्मा के आध्यात्मिक विकास का, जो सुव्यवस्थित निरूपण जैन शास्त्रों में मिलता है यह बौद्ध दर्शन में परिलक्षित नहीं होता ।
मोक्ष की साधना के लिए योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पातंजल ने योगशास्त्र के महाभाष्य में चित्त की पांच वृत्तियों (भूमिकाएं ) के विकास क्रम का वर्णन किया है। वे निम्नलिखित हैं-
१. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र, ५. निरुद्ध ।
उपर्युक्त भूमिकाएं चित्तवृत्ति के आधार पर योजित है इसलिए इनमें आत्मा को प्रमुखता नहीं दी गई है। योग दर्शन में कहा गया है - " योगश्चित्तवृत्ति निरोधः" अर्थात् (योग) चित्तवृत्ति के निरोध को कहते हैं ।
जैन दर्शन की भाषा में "योग" को आध्यात्मिक विकासक्रम की भूमिका नह सकते हैं। आध्यात्मिक विकास की पहली क्षिप्तावस्था में चित्त सांसारिक वस्तुओं में चंचल रहता है। दूसरी मूढावस्था में चित्त की स्थिति निद्रा के समान अभिभूत रहती है
तीसरी विक्षिप्तावस्था में चित्त कुछ शान्त रहता है लेकिन पूरी तौर से शान्त नहीं रहता ।
चौथी एकाग्रावस्था में चित्त किसी ध्येय में केन्द्रीभूत रहता है । और चरमावस्था निरुद्ध की हैं जिसमें चिन्तन का भी अन्त हो जाता है ।
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चित्त की इन पांच भूमिकाओं में से प्रथम दो आत्मा के अविकास की सूचक है, तीसरी विक्षिप्त भूमिका विकास और
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