Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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बुद्ध के बाद हुए २८वें धर्माचार्य' बोधिधर्म' ने सन् ५२० या ५२६ ई. में चीन जाकर वहाँ ध्यान सम्प्रदाय ( चान्-त्युंग ) की स्थापना की । बोधिधर्म की मृत्यु के बाद भी चीन में उनकी परम्परा चलती रही । उनके उत्तराधिकारी इस प्रकार हुए
१. हुई के सन् ४०६-५९३६.)
२. सेंग-त्सन् (मृत्यु सन् ६०६ ई.)
३. ताओ हसिन (सन् ५८०-६५१ ई. )
४. डुंग जैन ( सन् ६०१-६७४ ई.)
५. हुई
(सन् ६३८-०१३ ई.)
अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया पर यह परम्परा वहां चलती रही। इसका चरम विकास तग् (सन् ६१६-९०५ ई.), मुंग (सन् १९६० १२७८) और यूनान (सन् १२०६-१३१४ ई.) राजयंत्रों के काल में हुआ। १३-१४वीं शती के बाद महायान बौद्ध धर्म का एक अन्य सम्प्रदाय जो अभिताभ की भक्ति और उनके नाम जप पर जोर देता है, अधिक प्रभावशाली हो गया । इसका नाम जोदो - शूया सुखावती सम्प्रदाय है । सम्प्रति चीन-जापान में यह सर्वाधिक प्रभावशील है ।
चीन से यह तत्व जापान गया । येई -साई (सन् ११४१-१२१५ ई. ) नामक जापानी भिक्षु ने चीन में जाकर इसका अध्ययन किया और फिर जापान में इसका प्रचार किया। जापान में इस तत्व की तीन प्रधान शाखाएँ हैं-
१. रिजई शाखा : इसमें मूल प्रवर्तक चीनी महात्मा रिजई थे । इस शाखा में येई-साई, दाए ओ (सन् १२२५-१३०८ई.) (सन् १२८२१३३६ ई.) (सन् १२७७-१३६०६.) कुमिन (सन् १६८५ १७६८ ६. ) जैसे विचारक ध्यान योगी हुए ।
१. बोधिधर्म के पहले जो २७ धर्माचार्य हुए, उनके नाम इस प्रकार हैं-- १. महाकाश्यप २. आनन्द ३. शाणवास ४. उपगुप्त ५. घृतक ६. मिच्छक ७ वसुंमित्र ८. बुद्धनंदी ९. बुद्धमित्र १०. भिक्षुपार्श्व ११. पुण्ययशस् १२. अश्वघोष १३. भिक्षु कपिमाल १४. नागार्ज ुन १५. काणदेव १६. आर्य राहुल १७. संघनंदी १८ संघयशस १९. कुमारत २०. जयंत २१. वसुबन्धु २२. मनुर २३. हवलेनयशस् २४. भिक्षुसिंह २५. वाशसित २६. पुण्यमित्र २७. प्रज्ञातर
-- ध्यान सम्प्रदायः डा. भगतसिंह उपाध्याय, पृ. १३-१४
I
२. ये दक्षिण भारत में कांचीपुरम् के क्षत्रिय (एक अन्य परम्परा के अनुसार ब्राह्मण) राजा सुगन्ध के तृतीय पुत्र थे इन्होंने अपने गुरु प्रज्ञातर से चालीस वर्ष तक बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त की। गुरु की मृत्यु के बाद में उनके आदेश का अनुसरण कर चीन गये । वही पृ. १.
वी. नि. सं. २५०३
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२. सोतो शाखा
: इसकी स्थापना येई-साइ के बाद उनके शिष्य योगेन् (सन् १२००-१२५३ ई.) ने की । इसका संबंध व चीनी महात्मा हुई के शिष्य च युआन और उनके शिष्य शिवाउ (सन् ७०० ०९० ई.) से रहा है।
३. ओवाकु शाखा : इसकी स्थापना इंजेन (सन् १५९२ - १६७३ई.) ने की। मूल रूप में इसके प्रवर्तक चीनी महात्मा हुआई पो थे जिनका समय ९वीं शती है और जो हुई नेंग की शिष्य परम्परा की तीसरी पीढ़ी में थे ।
उपर्युक्त विवरण से सूचित होता है कि ध्यान तत्व का बीज भारत से चीन जापान गया, वहां वह अंकुरित ही नहीं हुआ, पल्लवित, पुष्पित और फलित भी हुआ। वहां के जन-जीवन में (विशेषतः जापान में ) यह तत्व घुल मिल गया है। वह केवल अध्यात्म तक सीमित नहीं रहा, उसने पूरे जीवन प्रवाह में अपना ओज और तेज बिखेरा है। येई-साइ की एक पुस्तक "कोजनगोकोकुरोन" (ध्यान के प्रचार के रूप में राष्ट्र की सुरक्षा) ने ध्यान को वीरत्व और राष्ट्र सुरक्षा में भी जोड़ दिया है। जापानी सिपाहियों में ध्यानाभ्यास का व्यापक प्रचार है। मनोबल, अनुशासन, दायित्ववोध और अन्तर्निरीक्षण के लिए वहां यह आवश्यक माना जाता है। जापान ने स्वावलम्बी और स्वाश्रयी बनकर जो प्रगति की है, उसके मूल में ध्यान की यह ऊर्जा अवश्य प्रवाहित है।
मुझे लगता है, पश्चिमी राष्ट्रों में जो ध्यान का आकर्षण बढ़ा है, वह उसी ध्यान तत्व का प्रसार है। चाहे यह प्रेरणा उन्हें सीधी भारत से मिली हो, चाहे चीन जापान के माध्यम से ।
यह इतिहास का कटु सत्य है कि वर्तमान भारतीय जनमानस अपनी परम्परागत निधि को गौरव के साथ आत्मसात् नहीं कर पा रहा है। जब पश्चिमी राष्ट्र का मानस उसे अपना लेता है या उसकी महत्ता - उपयोगिता प्रकट कर देता है तब कहीं जाकर हम उसे अपनाने का प्रयत्न करते हैं और अपने ही घर में "प्रवासी " से लगते हैं । "ध्यान" भी इस संदर्भ में कटा हुआ नहीं है । पश्चिम में जब "हरे राम हरे कृष्ण" की धुन लगी तब कहीं जाकर हमें अपने " ध्यान योग" की गरिमा और आवश्यकता का बोध हुआ ।
ध्यान के प्रति पश्चिमी आकर्षण
यह बोध स्वागत योग्य है क्योंकि इसके द्वारा हमें विलुप्त होती हुई ध्यान-साधना की अन्तः सलिला को फिर से पुनर्जीवित करने का अवसर मिला है । पर जिस माध्यम से यह "बोध" हुआ है, उसके कई खतरे भी हैं। पहला खतरा तो यह है कि हम ध्यान की मूल चेतना को भूलकर कहीं इसे फैशन के रूप में ही न ग्रहण कर लें। दूसरा यह कि इसे केवल जड़ मनोविज्ञान
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