Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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वैराग्य
जगतगुरु महामंडलेश्वर स्वामी शिवानन्दजी शास्त्री,
प्रवास साध जीवन का एक विशेष अंग बन गया है। पूज्य विनोबाजी कहा करते हैं-चलते-फिरते समाधि लगाना सीखो। गुफा में बैठ कर समाधि के आदी बनोगे तो संसार के एक प्रिय बच्चे की हलचल से भी तुम्हारे अंदर क्रोध उत्पन्न होगा। श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे--मिलीटरी के नौजवान चलते हुवे लेफ्ट-राइट बोला करते हैं, भक्त लोगों को चलते-फिरते 'राम-कृष्ण' रटना चाहिये। भारत की मेरी पदयात्रा में जहाँ कहीं मुझे किसी जैन महामुनि तथा किसी महासतीजी का दर्शन होता, मैं उन्हें हृदय से प्रणाम करता । तपोनिरत साधु पुरुषों को देख कर मेरा सिर अपने आप झुक जाता है। ___ मैं उनके वैराग्य की मन ही मन खूब प्रशंसा करता हूँ। सुनीतिकारों ने कहा भी है कि सर्वत्र भय है, केवल वैराग्य में ही अभय है।
भोगे रोगभयं कुलेच्युतिभयं वित्ते नूपालाद्भयम् । मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम् ।। शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम् ।
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां-'वैराग्य मेवाभयम् ।। अर्थात् भोग में रोग का भय है, कुलीनता में पतन का भय है, समृद्धि में राजा का भय है, मौन में दैन्य का भय है, बलवत्ता में शत्रु का भय है । गुणवत्ता में दुष्ट का भय है, शरीर में यमराज का भय है, क्या अधिक कहें। संसार की सभी वस्तु तथा सभी व्यवहार भयपूर्ण हैं, केवल एक वैराग्य ही अभय है।
वस्तुतः अभय देवीसम्पद् है । यह एक महान मानवीय गुण है। साधक के लिये यह साधना का महत्वपूर्ण अंग है। व्यक्ति में अभय का विकास वैराग्य के बिना नहीं हो सकता । पूर्ण वैराग्यवान ये जैन महामुनि तथा महासती अवश्य ही अभय हैं । ये उस
अभयपद को अवश्य प्राप्त करने वाले हैं, जिसके लिये सभी तत्ववेत्ताओं ने अपना सर्वस्व अर्पण किया है। भारतीय दर्शन शास्त्रों में वैराग्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । नौका चलाने के लिये यथेष्ट जल की बड़ी आवश्यकता है। आध्यात्मिक जीवन एक ऐसी नौका है कि जो वैराग्यरूपी जल के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकती।
तपस्या में जैन समाज सबसे आगे है। अब मैं सभी प्रकार के उत्तम वाहनों में बैठ कर घूमता हूं। आज भी पूर्ववत् जहाँ कहीं उन पैदल चलने वाले तपस्वियों को देखता हूँ तो मेरा सिर उनके सामने झुक जाता है।
मन ही मन बोलता हूं-धन्य हैं ये तपस्वी, जो आज इस विमान के युग में भी पैदल चल रहे हैं । आराम के साधन को देख कर भी उसकी प्राप्ति की इच्छा न हो, यही सबसे बड़ी तपस्या है । बदलती हुई इस दुनियां में हम न बदलें, इससे बढ़ कर और कोई तपस्या नहीं। जिनदत्तसूरि ने कहा--
'बलभोगोपभोगानामुभयोनिलाभयोः । अन्तरायस्तथा निद्राभीरज्ञानं जुगुप्ति तम् ।।
हिसारत्यरती रागद्वेषाव विरतिः स्मरः । शोको मिथ्यात्वमेते अष्टादश दोषा न यस्य सः ।।
'जिनो देवो गुरु ... . . . . . . . । अर्थात् जिनके अंदर उक्त १८ दोष नहीं हैं वे मनुष्यों में देव हैं, जिन हैं, गुरु हैं, वे धन्य हैं, कृतकृत्य हैं। __इन अठारह दोषों में वैराग्यहीनता और भोग-लोलुपता ये दो भय भयानक दोष हैं।
तप के बिना इनकी सिद्धि नहीं हो सकती, अतएव हमारा जीवन तपस्वी हो।
बी.नि. सं. २५०३
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