Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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निर्वाण के संबन्ध में विद्वानों के दृष्टिकोणों को निम्न रूप से वर्गीकृत किया है:-- १. निर्वाण एक अभावात्मक तथ्य है। २. निर्वाण अनिर्वचनीय अव्यय अवस्था है । ३. निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है। ४. निर्वाण भावात्मक; विशुद्ध एवं पूर्ण चेतना की अवस्था है। बौद्ध दर्शन के अवान्तर प्रमुख सम्प्रदायों का निर्वाण के स्वरूप के संबंध में भिन्न प्रकार से दृष्टि भेद है--
१. वैभाषिक संप्रदाय के अनुसार निर्वाण संस्कारों या संस्कृत धर्मों का अभाव है क्योंकि संस्कृत धर्मता ही अनित्यता है, यही धर्मों का बन्धन है, यही दुःख है, लेकिन निर्वाण तो दुःख निरोध है, बन्धनाभाव है और इसलिये वह एक असंस्कृत धर्म है और असंस्कृत धर्म के रूप में उसकी भावात्मक सत्ता है । वैभाषिक मत में निर्वाण के स्वरूप को अभिधर्म कोष व्याख्या में निम्न प्रकार से बताया गया है "निर्वाण नित्य, असंस्कृत स्वतंत्र सत्ता, पृथक्मत, सत्य पदार्थ द्रव्य सत् है।"23 निर्वाण में संस्कार या पर्यायों का अभाव होता है लेकिन यहां संस्कारों के अभाव का अर्थ अनस्तित्व नहीं है। वरन् एक भावात्मक अवस्था ही है । निर्वाण असंस्कृत धर्म है। प्रो० शरवात्स्की ने वैभाषिक निर्वाण को अनन्त मृत्यु कहा है । उनके अनुसार निर्वाण आध्यात्मिक अवस्था नहीं है, वरन् चेतना एवं क्रिया शून्य जड़ अवस्था है। लेकिन श्री एस० के० मुकर्जी प्रो० नलिनाक्ष दत्त 25 और प्रो० मति 20 ने शरवात्स्की के इस दृष्टिकोण का विरोध किया है । इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक निर्वाण निश्चित रूप से एक भावात्मक अवस्था है। जिसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव होता है लेकिन फिर भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता होती है। वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता है या नहीं है ? यह प्रश्न भी विवादास्पद है। प्रो० शरवात्स्की निर्वाण दशा में चेतना का अभाव मानते हैं. लेकिन प्रो० मुकर्जी इस संबन्ध में एक परिष्कारित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार यशोमित्र की अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशद्ध मानस या चेतना रहती है। विद्वतवर्य बलदेव उपाध्याय ने बौद्ध दर्शन मीमांसा में वैभाषिक बौद्धों के एक तिब्बतीय उपसंप्रदाय का वर्णन किया है । जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में केवल वासनात्मक एवं क्लेशोत्पादक (सासव) चेतना का ही अभाव होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दिशा में अना
स्रव विशुद्ध चेतना का अस्तित्व बना रहता है । वैभाषिकों के इस उपसंप्रदाय का यह दृष्टिकोण जैन विचारणा के निर्वाण के अति समीप आ जाता है । क्योंकि यह भी जैन विचारणा के समान निर्वाणावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता है । वैभाषिक दृष्टिकोण निर्वाण की संस्कारों की दृष्टि से अभावात्मक, द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवेचना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है । फिर भी उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक पक्ष अधिक उभरा है।
२. सौत्रान्तिक सम्प्रदाय--वैभाषिक के अनुसार यह मानते हुए भी कि निर्वाण संस्कारों का अभाव है, यह स्वीकार नहीं करता कि है कि असंस्कृत धर्म की कोई भावात्मक सत्ता होती है । इनके अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही तत्व का यथार्थ स्वरूप है । अतः सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता में ऐसा करना बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है । प्रो० शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय में "निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया का समाप्त हो जाना जिसके पश्चात् ऐसा कोई जीवनशून्य तत्व शेष नहीं रहता है जिसकी जीवन प्रक्रिया समाप्त हो गई है।" निर्वाण क्षणिक चेतना प्रवाह का समाप्त हो जाना है जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष नहीं रहता । क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है । परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्व की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। और निर्वाणदशा में परिवर्तनों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है अतः उसके परे कोई सत्ता शेष नहीं रहती है । इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्वाण मात्र अभावात्मक अवस्था है । वर्तमान में बर्मा और लंका के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक अनस्तित्व के रूप में देखते हैं । निर्वाण से भावात्मक, अभावात्मक और अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के अभावात्मक पक्ष पर अधिक बल देती है । यद्यपि इस प्रकार सौत्रान्त्रिक सम्प्रदाय का निर्वाण का अभावात्मक दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है, लेकिन सौत्रान्तिक में भी एक ऐसा उपसंप्रदाय था जिसके अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक दशा नहीं था । उनके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना पर्यायों का प्रवाह रहता है । यह दृष्टिकोण जैन विचारणा की इस मान्यता के निकट आता है जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्षदशा में आत्मा में चेतन्य ज्ञान धारा सतत रूप से प्रवाहित होती रहती है ।
३. विज्ञानवाद : योगाचार-महायान के प्रमुख ग्रंथ लंकावतार के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्तिविज्ञानों की अप्रवृत्तावस्था
२३. द्रव्यं सत् प्रतिसंख्या निरोधः सत्यचतुष्टय-निर्देश-निर्द्धिष्ट
त्वात् मार्ग सत्येव इति वैभाषिकाः -यशोमित्र-अभिधर्म
कोष व्याख्या पृष्ठ १७ २४. बुद्धिस्ट निर्वाण पृष्ठ २७ २५. आस्पेक्ट आफ महायान इन रिलेशन टू हीनयान पृष्ठ १६२ २६. सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म पृष्ठ २७२-७३ २७. बुद्धिस्ट फिलासफी आफ युनिवर्सल फ्लक्स पृष्ठ २५२
२८. (अ) ए कम्पेरेटिव स्टडी आफ दी कानसेप्ट आफ लीबरेशन
___ इन इंडियन फिलासफी, पृष्ठ ६९ (ब) बौद्ध दर्शन मीमांसा, पृष्ठ १४७
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राजेन्द्र-ज्योति
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