Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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गुणका विकास हो जाने से विरति (संयम) आत्मा अवश्य है । साथ में कुछ अंश में प्रमाद रह जाता है। अतः प्रमत्त संयत गुण स्थान के नाम से प्रतिपादित किया गया है ।
(७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान
जब आत्म- परिणति की तीव्र जागृति द्वारा संयम के पालन में अप्रमत्तभाव से लगन लगती है, धर्मध्यानादि के आलंबन में प्रयत्नशील बनने की तीव्र झंखना पैदा होती है, तब अप्रमत्त संवत गुणस्थान माना गया है। आत्म जागृति की मात्रा में वृद्धि सातवें गुणस्थान पर एवं कुछ महत्ता छठे गुणस्थान में मानी गई है, वर्षों के चारित्र पालन में कभी-कभी अप्रमत्तभाव आ जाता है ।
(८) निवृति गुणस्थान
संसार के चक्र में फँसे चेतन को कभी जो परिणाम की प्राप्ति न हुई हो, वह परिणाम, अपूर्व आत्म परिणाम इस गुणस्थान होती है। कोई यहाँ से विख्यगामी चेतन मोहनीय कर्म की मलिनता को दबाकर नौवें दशवें गुणस्थान में होकर ग्यारहवें में पहुंचता है किन्तु वहाँ दबी हुई मोह कर्म की प्रकृति प्रभावशील होकर चेतन को नीचे गिराती है एवं उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है । साधना की दो श्रेणी मानी गई है एक उपश्रम श्रेणी, दूसरी क्षपक श्रेणी । उपश्रम श्रेणी का साधक ऊपर पहुँचकर भी वापस नीचे गिरता है, क्षपक श्रेणी का साधक स्थिर कदम से विकास के आगे ही बढ़ता है। अतः आठवां गुणस्थान दो रास्ते के रूप में निर्धारित है।
(१) अनिवृत्ति गुणस्थान
आठवें गुणस्थान की साधना का कार्य चेतन यहां आकर आगे बढ़ाता है। यहां आने के बाद मोह कर्म का शमन करता है या क्षय करता है । मोह कर्म के अभाव में या दबाव में आने के पश्चात् कामवासना का भी लय होता है। चूंकि सूक्ष्म या सुप्त कामवासना कभी-कभी साधक को अपनी साधना से नीचे गिरा देती है अतः यहाँ पर सूक्ष्म कामवासना का नाश हो जाने से साधक का रास्ता सरल हो जाता है ।
(१०) सूक्ष्मस पराय गुणस्थान
परिणाम की उच्च धारा के कारण अंतःकरण से स्थूल कषायों की मात्रा में कमी आती है, साथ में सूक्ष्म कषाय भी यहाँ के बाद नष्ट होने की स्थिति पर पहुंचता है । दशवें गुणस्थान पर क्रोध, मान, माया के नाश के अलावा सूक्ष्म लोभ भी दब जाता है या क्षय पाता है, अतः सूक्ष्मसापराय गुणस्थान माना गया है ।
(११) उपशांत मोह गुणस्थान
कर्म-पाश के बंधनों को काटता चेतन स्वतंत्र स्वरूप अभिव्यक्ति को पाकर कम से कम एक समय एवं अधिक से अधिक अंतर्मुहुर्त तक यह गुणस्थान की मनोहर भूमिका पर परमोच्च वीतराग दशा का अनुभव करता है। बादलों से ढँके सूर्य की प्रभा
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कभी छिप जाती है कभी खुलती है। वैसे ही कमों के आवरण से घिरे चेतन की ज्ञान प्रभा प्रकाशित होती है, कभी तिरोहित होती है। इस भूमिका के परिणाम की विचित्रता के कारण कभी-कभी मोह-मुक्ति के निकट पहुंचने के बावजूद नीचे गिरना पड़ता है। यहाँ से छठे सातवें, पाँचवें चौथे या पहले गुणस्थान पर चेतन पहुँच जाता है ।
(१२) क्षीणमोह गुणस्थान
विकासक्रम के ग्यारह सोपान का आरोही चेतन कर्म संग्राम में जूझता यहां आकर मोह कर्म का क्षय रूप विनाश करके विजय श्री की पुष्पमाला पहनने योग्य बन जाता है। एक ही मोह-कर्म का क्षय हो जाने से अन्य घातीकर्म शीघ्रता से अपना डेरा-तम्बू चेतन के आत्मप्रदेशों से उठाने लग जाते हैं। यह गुणस्थान की महिमा ही अनोखी है। इसका नाम क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है।
(१३) सयोगी केवली गुणस्थान
बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर पहुँच कर मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन चार कर्मों को क्षय कर तेरहवें गुणस्थान में आते ही चेतन ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य रूप चार आत्म- गुणों की प्रभा का विस्तार बढ़ाने लगता है । सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बनकर शेष अघाती कर्मों के विपाक का अनुभव सहज भाव से करता है । तेरहवें सोपान के आरोहण पश्चात् मुक्ति के किनारे लगने में अब कोई आंधी तूफान आने वाला नहीं है। निराबाध रूप से मुक्ति की मंजिल में पहुंचना यहाँ से ही होता है ।
(१४) अयोगी केवली गुणस्थान
सयोगी केवली अपनी आयु के अंतिम क्षणों में मन, वचन एवं काय योग का निरोध करके अयोगी अवस्था में प्रवेश करता है । योगरोधन की प्रक्रिया से आत्मप्रदेशों में, शैलेसीकरण द्वारा अपूर्व स्थिरता पैदा होती है यही निष्कंप दशा में पांच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण की अल्प समयावधि में चेतन मुक्ति के मंगल मंदिर में बिराजमान होता है ।
विकास की चरम सीमा
आध्यात्मिक विकास के चौदह सोपान के आरोहण पश्चात् शुद्ध-बुद्ध निरंजन निराकार, चिदानन्द स्वरूप चेतन के विकास की यही चरम सीमा है। इससे बढ़कर विकास की अवस्था संसार में कहीं नहीं है। अवनति का परम बिन्दु मिया एवं उन्नति का चरम बिन्दु मोक्ष है। दोनों बिन्दुओं के बीच साधना का दीर्घ मार्ग बना हुआ है। जाति, विकास में सहायक होती है, प्रमाद विनाश में सहायक होता है। जागृति एवं प्रमाद के जनक ध्यान को माना गया है। शुभ ध्यान जागृति का जनक है, अशुभ ध्यान प्रमाद का जनक है । ध्यान एवं गुणस्थान दोनों में क्षीर-नीर जैसी मैत्री है। चार ध्यान में से प्रथम दो आर्त, रौद्र एक से तीन गुणस्थान पर, चौथे-पाँचवें
राजेन्द्र- ज्योति
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